Book Title: Dhyan Shatak
Author(s): Jinbhadra Gani Kshamashraman, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granth Karyalay

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Page 16
________________ पुवकयब्भासो भावणाहि झाणस्स जोग्णयमुवेइ। ताओ य नाण-दसण-चरित्त-वेरग्गनियताओ॥३०॥ अगर ध्यान के पूर्व भावनाओं का अभ्यास हो जाय तो ध्यान की पात्रता आ जाती है। ये भावनाएं ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य से संबन्धित हैं। णाणे णिच्चन्भासो कुणइ मणोधारणं विसुद्धि च। नाणगुणमुणियसारो तो झाइ सुनिच्चलमईओ॥३१॥ ज्ञान (श्रुतज्ञान) के नित्य अभ्यास से मन की धारणा शक्ति बढ़ती है। ज्ञान से विशुद्धि प्राप्त होती है। ज्ञान ही हमें गुणों के सार तक पहुँचाता है। फलस्वरूप स्थिर बुद्धि से ध्यान करना संभव हो जाता है। संकाइदोसरहिओ पसम-थेजाइगुणगणोवेओ। होइ असंमूढमणो दंसणसुद्धीए झाणंमि॥३२॥ शंका आदि दोषों से रहित और प्रश्रम, स्थैर्य आदि गुणों से युक्त होने पर व्यक्ति को दर्शन की विशुद्धि प्राप्त हो जाती है। फलस्वरूप वह अपने ध्यान में भटकने से बच जाता है। नवकम्माणायाणं पोराणविणिज्जरं सुभायाणं। चारित्तभावणाए झाणमयत्तेण य समेइ ॥३३॥ चारित्र भावना से नए कर्मों का आगम रुकता है। पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा होती है। शुभ कर्मों तथा ध्यान की प्राप्ति सहज हो जाती है। सुविदियजगस्सभावो निस्संगो निब्भओ निरासो य। वेरगभावियमणो झाणंमि सुनिच्चलो होइ॥३४॥ संसार के स्वभाव को भलीभाँति जान लेने और विषयासक्ति, भय तथा अपेक्षाओं से मुक्त होने पर हृदय में वैराग्य भाव उत्पन्न हो जाता है। फलस्वरूप ध्यान में स्थिरता आ जाती है। 15

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