Book Title: Dharmratna Prakaran Part 03
Author(s): Devendrasuri
Publisher: Jain Dharm Vidya Prasarak Varg

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Page 10
________________ ४ ग्रंथकारे प्रशस्तिमां कांपण शक संवत् दर्शाव्यो नथी. पण तेओ एटलुं जणावे छे के, आ ग्रंथनी प्रत विद्यानंद नामना कोई विद्वाने प्रथम लखी हती, अने हेमकळश उपाध्याय तथा पंडित धर्मकीर्त्ति विगेरेए तेने शोधी हती. आवा समर्थ विद्वानोमां पण पूर्वे विनय गुण केवो हतो ? तेनो दाखलो आ प्रशस्तिमां सारो मळी आवे छे. तेओ छेवढे नीचेना बे श्लोक लखी बीजा विद्वानोनी पासे विनयपूर्वक शोधवानी विनंति करे छे, अने बधा जगतनुं शुभ इच्छे छे. " यद्गदितमल्पमतिना सिद्धांतविरुद्धमिह किमपि शास्त्रे ॥ विद्वद्भिस्तत्वज्ञैः प्रसादमाधाय तच्छोध्यम् ॥ १॥ बहुमत्पशब्द शास्त्रमिदं रचयता मया कुशलम् । यदवापि धर्मरत्न प्राप्तिर्जगतोऽपि तेनास्तु ॥ २ ॥ " --- 66 आ ग्रंथमां अल्प बुद्धिने लइने जो माराथी कांइ पण सिद्धांत विरुद्ध लखाए होय तो तत्वज्ञ विद्वानोए मेहेरबानी करी ते शोधी लेबुं. घगा अर्थवाळु अने अल्प शब्दवाळु आ शास्त्र रचतां मने जो कुशलता प्राप्त थइ होय तो तेनाथी बधा जगत्ने पण धर्म रत्ननी माप्ति थाओ. १-२ " आवा ग्रंथ रत्तो चवाथी भव्य प्राणीने घणो लाभ थाय, कोई पण संशय नथी. कदि काळना प्रभावे करी पूर्वनी सर्वोत्तम स्थिति न मेळवी शकाय, पण तेवी भावना तो सारी रीते भावी शकाय छे; जे भावना भाववाने माटे आवा बोधक ग्रंथो भव्य प्राणीने पूरेपूरा धर्मना अधिकारी बनावे छे.

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