Book Title: Dharm ke Dash Lakshan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 13
________________ १२ 0 धर्म के बालारण क्रमशः विकास होता है। प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी में छहछह काल होते हैं। प्रत्येक अवसर्पिणी काल के अन्त में जब पंचम काल समाप्त और छठा काल प्रारंभ होता है तब लोग अनार्यवृत्ति धारण कर हिंसक हो जाते हैं। उसके बाद जब उत्सपिणी प्रारंभ होती है और धर्मोत्थान का काल पकता है तब श्रावण कृष्ण प्रतिपदा से सात सप्ताह (४६ दिन) तक विभिन्नप्रकार की बरसात होती है, जिसके माध्यम से सुकाल पकता है और लोगों में पुनः अहिंसक प्रार्यवत्ति का उदय होता है। एकप्रकार से धर्म का उदय होता है, प्रारंभ होता है, और उसी वातावरण में दश दिन तक उत्तमक्षमादि दश धर्मों की विशेष आराधना की जाती है तथा इसी आधार पर हर उत्सपिग्गी में यह महापर्व चल पड़ता है।" यह कथा तो मात्र यह बताती है कि प्रत्येक उत्सपिगी काल में इस पर्व का पुनरारम्भ कैसे होता है। इस कथा से दशलक्षण महापर्व की अनादि-अनन्तता पर कोई अाँच नहीं पाती। यह कथा भी तो शाश्वत कथा है जो अनेक बार दुहराई गई है और दूहराई जायगी। क्योंकि अवमपिणी के पंचम काल के अन्त में जब-जब लोग इन उत्तमक्षमादि धर्मों से अलग हो जायेंगे और उत्सर्पिणी के प्रारंभ काल में जब-जब इसकी पुनरावृनि होगी, नव-तव उम युग में दशलक्षण महापर्व का इस तरह आरंभ होगा। वस्तुत: यह युगारंभ की चर्चा है, परंभ की नहीं। यह अनादि से अनेक युगों तक इगीप्रकार प्रारंभ हो चुका है और भविष्य में भी होता रहेगा। ____ इगकी अनादि-अनन्तता शास्त्र-गम्मन तो है ही, युक्तिसंगत भी है। क्योंकि जब से यह जीव है तभी से यद्यपि क्षमादिस्वभावी है, तथापि प्रकटरूप (पर्याय ) में क्रोधादि विकारों से युक्त भी तभी से है । इसीकारगा ज्ञानानन्दस्वभावी होकर भी अज्ञानी और दुखी है। जबसे यह दुखी है; सुख की आवश्यकता भी तभी से है। चूंकि सभी जीव अनादि से हैं, अतः सुख के कारगग उत्तमश्चमादि धर्मों की आवश्यकता भी अनादि से ही रही है । इसीप्रकार यद्यपि अनन्त आत्माएँ क्षमादिस्वभावी प्रात्मा का प्राश्रय लेकर क्रोणादि से मुक्त हो चुकी हैं, तथापि उनसे भी अनन्तगुणी आत्माएँ अभी भी क्रोधादि विकारों से युक्त हैं, दुखी हैं;

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