________________
साता वेदनीय या असाता वेदनीय के उदय से किसी वस्तु की प्राप्ति-अप्राप्ति नहीं होती है। हम सामान्यजन कार्य पर कारण का आक्षेप कर सम्बद्ध वस्तु को भी अपने कर्म का फल मानते हैं, जो एक भ्रम है।
जो कर्म जीव को मोहित करे, मूर्च्छित करे, हित-अहित की पहचान न होने दे वह मोहनीय कर्म है। ज्ञानावरणादि आठों कर्मों में मोहकर्म प्रधान है। इसे कर्मों का राजा कहा जाता है। मोहकर्म के दो पक्ष हैं- दर्शन मोहनीय एवं चारित्र मोहनीय । दर्शन मोहनीय व्यक्ति की आन्तरिक दृष्टि का निर्धारण करता है तथा चारित्र मोहनीय उसके भावात्मक आचरण को द्योतित करता है। भीतरी दृष्टि में यदि पर पदार्थों में आसक्ति भाव है तो निश्चित ही दर्शनमोहनीय का प्रभाव है तथा आचरण में यदि क्रोध, मान, माया एवं लोभ का अस्तित्व है तो वह चारित्र मोहनीय कर्म का परिणाम है।
दर्शनमोहनीय के तीन प्रकार हैं- मिथ्यात्व मोहनीय, सम्यक्त्व मोहनीय एवं मिश्र मोहनीय। मिथ्यात्व मोहनीय का दूसरा नाम मिथ्यात्व एवं मिथ्यादर्शन भी है। सत्य तत्त्व के प्रति श्रद्धा न होकर अनित्य पदार्थों के भोगों के प्रति श्रद्धा होना मिथ्यात्व मोहनीय है। सम्यग्दर्शन से जनित शान्ति के सुख में रमणता अथवा उसका भोग सम्यक्त्व मोहनीय कर्म है। दूसरे शब्दों में सम्यक्त्व में मोहित होना, आगे न बढ़ना सम्यक्त्व मोह है। सम्यक्त्व मोह एवं मिथ्यात्व मोह का मिश्रण मिश्र मोह है। इसका उदय एक अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल तक नहीं होता है। सम्यग्दर्शन होने के पूर्व दर्शनमोहनीय की इन तीनों प्रकृतियों का उपशम, क्षय या क्षयोपशम होना अनिवार्य होता है। कर्मबंध के समय मात्र मिथ्यात्वमोहनीय कर्म प्रकृति का बंध होता है, जबकि उदय के समय यह प्रकृति तीन स्वरूपों में प्रकट हो सकती है जिन्हें मिथ्यात्वमोहनीय, सम्यक्त्व मोहनीय एवं मिश्र मोहनीय (सम्यक्त्वमिथ्यात्वमोहनीय) कहा गया है।
स्थानांग सूत्र में मिथ्यात्व के व्यावहारिक दृष्टि से 10 प्रकार निरूपित हैं- 1-2. अधर्म को धर्म एवं धर्म को अधर्म श्रद्धना, 3-4. उन्मार्ग को सन्मार्ग एवं सन्मार्ग को उन्मार्ग श्रद्धना, 5-6. अजीव को जीव तथा जीव को अजीव श्रद्धना, 7–8. असाधु को साधु तथा साधु को असाधु श्रद्धना, 9-10. अमुक्त को मुक्त तथा मुक्त को अमुक्त श्रद्धना। इनकी व्याख्या श्री लोढ़ा सा. ने अपने ढंग से की है। वे लिखते हैं कि वस्तु का स्वभाव धर्म
LXVIII
आमुख