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एक वस्तु पर लागू होती है वही समस्त वस्तुओं पर लागू होती है। जिस प्रकार बुद्धिमान पुरुष चावलों की हांडी में एक चावल को देखकर उस हांडी के समस्त चावलों के विषय में यह जान लेता है कि ये चावल पक गए हैं या कच्चे हैं अथवा अधपके हैं (उसे एक चावल के ज्ञान से सब चावलों का ज्ञान हो जाता है।) उसी प्रकार विवेकी पुरुष किसी एक वस्तु की, किसी एक घटना की, किसी एक स्थिति की सच्चाई को जानकर संसार की समस्त वस्तुओं, घटनाओं व स्थितियों का ज्ञान कर लेता है अर्थात् सर्वज्ञ हो जाता है।
संसार में जो भी वस्तु दिखाई देती है, वह उत्पन्न होती है! जो वस्तु उत्पन्न होती है, वह नष्ट भी होती है। उत्पाद-व्यय के इस ज्ञान में ही सम्पूर्ण संसार का ज्ञान समाया हुआ है। जिस वस्तु का नाश अवश्यंभावी हो, उससे प्राणी को कुछ भी प्राप्त नहीं होता है। जो प्राप्त होता हुआ प्रतीत होता है, वह भी रहता नहीं है। परिणाम में शून्य ही शेष रहता है। इस प्रकार सांसारिक पदार्थों के भोग से कुछ भी उपलब्धि नहीं होती है। अतः भोगों से बचने में ही प्राणी का कल्याण है। नश्वर पदार्थों से सम्बन्ध–विच्छेद करते ही अविनश्वर, अविनाशी से सम्बन्ध स्थापित हो जाता है एवं अभिन्नता हो जाती है तथा स्वरूप में स्वत: स्थिरता हो जाती है अर्थात् वह ध्रुवचारी हो जाता है। यही आचारांग सूत्र में कथित ध्रुवचारी बनने की साधना है। उत्पाद-व्ययध्रौव्य रूप त्रिपदी में ध्रौव्य ग्राह्य है, यही भगवान महावीर ने सम्पूर्ण ज्ञान के सार-रूप में फरमाया है। शेष ज्ञान इसी त्रिपदी ज्ञान का विस्तार मात्र है, जो गणधरों द्वारा निरूपित है।
जैन दर्शन में पदार्थ की उत्पाद-व्यय रूप परिवर्तनशील अवस्था को ‘पर्याय' तथा ध्रौव्य अवस्था को 'द्रव्य' कहा है। इन दोनों का ज्ञान पदार्थ का संपूर्ण ज्ञान है, सर्वज्ञत्व है। इसी विचार का समर्थन करते हुए स्व.पंडित श्री सुखलाल जी ने लिखा है कि 'जैन परम्परा का सर्वज्ञत्व सम्बन्धी दृष्टिकोण मूल में केवल इतना ही था कि द्रव्य और पर्याय उभय को समान भाव से जानना ही ज्ञान की पूर्णता है।' यह मन्तव्य पंडितजी के दर्शन और चिन्तन' ग्रन्थ में 'सर्वज्ञत्व और उसका अर्थ' निबन्ध में आगमानुसार युक्ति पुरस्सर रूप में प्रस्तुत किया है, जो विचारणीय है।
ज्ञानावरण कर्म