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कारण मानता है। उन वस्तुओं को निमित्त बनाना या न बनाना, उनसे सुखी-दुःखी होना या न होना आदि उन वस्तुओं, घटनाओं से जीव के प्रभावित होने या न होने पर निर्भर करता है। जीव के प्रभावित न होने पर कोई वस्तु या घटना कर्मबंध एवं कर्मोदय में निमित्त नहीं बनती है। वस्तुओं, घटनाओं आदि से प्रभावित होने पर एक ही वस्तु, घटना उसके कभी पुण्योदय में और अनेक जीवों के पापोदय में निमित्त बन जाती है। इसी प्रकार एक ही वस्तु या घटना एक ही समय में अनेक जीवों के लिए पुण्योदय में और अनेक जीवों के पापोदय में निमित्त बन जाती है। यदि निमित्त बनने से उसका होना कर्मोदय से माना जाय तो प्रश्न है कि उसकी उपलब्धि पापोदय से मानी जाय या पुण्योदय से? इस प्रकार अनवस्था, अव्यवस्था दोष उत्पन्न हो जाएगा। अतः द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव-अवस्था, भव घटना, वस्तु आदि को कर्मोदय से नहीं माना है, इन्हें कर्मोदय में निमित्त कारण माना है। यदि आर्थिक लाभ को सातावेदनीय के उदय से
और आर्थिक हानि को असातावेदनीय के उदय से माना जाय तो दोनों का उदय युगपत् मानना होगा, जो कर्म सिद्धान्त के विरुद्ध है। वेदनीय कर्म हानिकारक नहीं है ___श्रमण संस्कृति में ज्ञान-दर्शन को बड़ा महत्त्व दिया गया है। इसीलिए साधना मार्ग में स्थान-स्थान पर जाणइ-पासइ(जानता है-देखता है) आता है।
जैन-दर्शन में ज्ञान-दर्शन के आधार पर ही जीव-अजीव का, जड़-चेतन का भेद किया जाता है। जिसमें ज्ञान-दर्शन है उसे सचेतन कहा है और जिसमें ज्ञान-दर्शन नहीं है, उसे अचेतन (जड़-अजीव) कहा है। दर्शन को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि स्व-संवेदन दर्शन है।
जब चेतन को संवेदन होता है तो वह उसे अनुकूलता एवं प्रतिकूलता के रूप में वेदन करता है। अनुकूलता रूप वेदन को सातावेदनीय और प्रतिकूलता रूप वेदन को असातावेदनीय कहा जाता है। साता-असाता से प्राणी का कुछ भी बनता-बिगड़ता नहीं है, इससे कोई लाभ-हानि नहीं है; यदि वह साता-असाता के प्रति कोई प्रतिक्रिया न करे, द्रष्टा बना रहे। परन्तु प्राणी पुराने संस्कारवश प्रायः साता वेदना के प्रति राग और असाता वेदना के प्रति द्वेष करता है अर्थात् भोग करता है तो वह आकुल-व्याकुल
वेदनीय कर्म
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