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अनक्षर श्रुत-क्षरणयुक्त विनश्वर-असत् या अनित्य का ज्ञान अनक्षर श्रुत है। अनित्य एवं अनिष्ट त्याज्य है, यह ज्ञान अनक्षर श्रुत है। संज्ञी श्रुत- जिसमें ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिंता (चिंतन) और विमर्श (परामर्श) हो उसे संज्ञी कहते हैं। जिसमें ये शक्तियां नहीं हैं, वह असंज्ञी है। अपने स्वाभाविक गुणों का चिन्तन, मनन, विचार-विमर्श, अन्वेषण (खोज) करने में रत होना संज्ञी श्रुत का लक्षण है। असंज्ञी श्रुत- जो एकेन्द्रिय सहित अविकसित जीव हैं तथा संज्ञी के उपर्युक्त लक्षण से रहित हैं, उनका ज्ञान असंज्ञी श्रुत है। उन्हें भी मृत्यु, अशांति, दुःखरूप अस्वाभाविकता इष्ट नहीं है, जीवन अमरत्व, शांति, स्वाधीनता आदि स्वाभाविकतया इष्ट हैं। सम्यक् श्रुत- शांति, मुक्ति, स्वाधीनता, प्रीति (परमानंद), पूर्णता आदि के यथार्थ स्वरूप को समझना सम्यक श्रुत है। मिथ्या श्रुत- पराश्रय-पराधीनता को स्वाधीनता समझना, इन्द्रिय विषयों से जनित सुखाभास को सुख समझना आदि विपर्यय रूप
से समझना मिथ्याश्रुत है। 7-8. अनादि अपर्यवसितश्रुत- जीवन (अमरत्व, स्वाधीनता आदि)
के स्वाभाविक ज्ञान की मांग सब जीवों में अनादिकाल से है। इस प्रकार मांग रूप में श्रुतज्ञान अनादि है और यह मांग सदैव रहेगी, इसका अवसान (अंत) कभी नहीं होगा इस रूप में यह अपर्यवसित श्रुत है। इस प्रकार मांग रूप में श्रुतज्ञान
अनादि-अपर्यवसित श्रुत है। 9-10. सादिसपर्यवसित श्रुत- पराधीनता को स्वाधीनता जानना मिथ्याश्रुत
है। मिथ्याश्रुत के समय सम्यकश्रुत पर आवरण आ जाता है, सम्यकश्रुत ज्ञान प्रकट नहीं होता है। जब मिथ्याश्रुत मिटकर सम्यकश्रुत प्रकट होता है तब वह सादि श्रुत होता है। पुनः मिथ्याश्रुत ज्ञान से सम्यकश्रुत ज्ञान आवरित हो जाता है, प्रकट नहीं होता है तब वह सपर्यवसित श्रुत कहा जाता है अर्थात् क्षयोपशम भाव की अपेक्षा से श्रुतज्ञान सादि सपर्यवसित होता है।
ज्ञानावरण कर्म