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अन्तराय कर्म
अन्तराय कर्म का स्वरूप
विघ्न उत्पन्न होना अन्तराय है । धवला पुस्तक 13, पृ. 389 पर कहा है- “ 'अन्तरमेति गच्छतीत्यन्तरायः ” जो अन्तर आता है वह अन्तराय है अर्थात् अन्तराल ही अन्तराय है । सर्वार्थसिद्धि में कहा है
“यदुदयाद्दातुकामोऽपि न प्रयच्छति, लब्धुकामोऽपि न लभते, भोक्तुमिच्छन्नपि न भुङ्क्ते, उपभोक्तुमभिवाछन्नपि नोपभुङ्क्ते, उत्सतुिकामोऽपि नोत्सहते ।” – तत्त्वार्थ सूत्र, 8.4 पर सर्वार्थसिद्धि
टीका
जिसके उदय से देने की इच्छा करता हुआ भी नहीं देता है, प्राप्त करने की कामना करते हुए भी प्राप्त नहीं करता है, भोग-उपभोग की वांछा करता हुआ भी भोग-उपभोग नहीं कर पाता है और उत्साहित होने की कामना रखता हुआ भी उत्साहित नहीं होता है वह अन्तराय है । अर्थात् मोहनीय कर्म के उदय से किसी कामना का उत्पन्न होना और उस कामना की पूर्ति न होने से अभाव का अनुभव होना ही अन्तराय है । में कहा है
भगवती सूत्र
अन्तराइएणं भंते! कम्मे कइ परीसा समोयरति? गोयमा ? एगे अलाभपरीसहे समोयरति ।।
- भगवती सूत्र शतक 8, उद्देशक 8
प्रश्न- हे भगवन्! अन्तराय कर्म से कितने परीषहों का समवतार होता है?
उत्तर - हे गौतम! एक अलाभ परीषह होता है । अर्थात् अभाव का अनुभव होना ही अन्तराय है ।
अन्तराय कर्म के भेद एवं बंध के हेतु
अन्तराय कर्म के दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय एवं वीर्यान्तराय ये पाँच भेद हैं। इन पाँचों का उदय बारहवें गुणस्थान तक अन्तराय कर्म
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