________________
प्राण, भूत, जीव एवं सत्त्वों के प्रति मैत्रीभाव उत्पन्न होता है। सब प्राणियों के प्रति मैत्री को अनुकम्पा भी कहा गया है। अनुकम्पा भाव साता का प्रमुख कारण है।
पुस्तक के लेखक ने दुःख का मूल सुख-दुःख के भोग को माना है। उनके अनुसार सुख के प्रति राग करना एवं दुःख के प्रति द्वेष करना सुख-दुःख का भोग है। अपने सुख का भोग न करके उसे पर पीड़ा से करुणित होकर सेवा में लगाना राग की निवृत्ति में सहायक है तथा दुःख से मुक्ति पाने के लिए सुख-दुःख के भोग का त्याग अनिवार्य है।
वेदनीय कर्म अघाती है इसलिए वह हानिकारक नहीं है। हानिकारक है साता की वेदना के प्रति राग एवं असाता की वेदना के प्रति द्वेष करना । राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति नये कर्मों को जन्म देती है। विद्वान् लेखक श्री लोढ़ा सा. ने विभिन्न तर्क प्रस्तुत कर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि बाह्य विषयों की प्राप्ति साता या असाता वेदनीय कर्म के उदय से नहीं होती, हाँ उन विषयों के निमित्त से जीव में साता या असाता का अनुभव वेदनीय कर्म के उदय से होता है। जीव में पहले किस प्रकार के कर्म-संस्कार हैं उसके अनुसार ही उसे उन विषयों के मिलने पर सुख-दुःख का वेदन होता है। लोढ़ा सा. ने उदाहरण देते हुए कहा कि कोई संगीतज्ञ लयताल के साथ संगीत सुनाता है, इससे परीक्षार्थी छात्र को एवं अन्य पड़ौसी को विघ्न उत्पन्न होने से असाता का वेदन होता है तथा संगीत के रसिक अभिलाषी व्यक्ति को उससे साता का अनुभव होता है। यदि संगीतज्ञ के संगीत-गायन को किसी एक के कर्म के उदय का फल माना जाए तो उससे दो प्रकार के फलों की प्राप्ति नहीं हो सकती। तीसरी बात यह भी है कि संगीतज्ञ जो संगीत सुना रहा है एवं स्वयं आनन्दित हो रहा है, उसका अपना भी तो कोई कर्म होगा, जिससे उसे साता का अनुभव हो रहा है। इस तरह विभिन्न प्रश्न खड़े होते हैं, अतः निमित्त से कर्म उदय में आते हैं, यह मानना तो उचित है, किन्तु निमित्त की प्राप्ति कर्म के उदय से होती है, यह मन्तव्य उचित नहीं है। निमित्तों की मनोज्ञता- अमनोज्ञता की वैयक्तिक स्वभाव एवं रुचि पर नि रि करती है। जिस विष्ठा की दुर्गन्ध से मनुष्य नाक सिकोड़ कर असाता का अनुभव करता है, उसी विष्ठा का स्वाद एक सूअर को मनोज्ञ प्रतीत होता है। अतः आमुख
LXVII