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होता है, अशान्त होता है, अपनी समता भंग करता है। यद्यपि आकलता, व्याकुलता, विषमता(समता का भंग होना) व अशान्ति किसी भी प्राणी को अभीष्ट नहीं है, परन्तु प्राणी साता के सुखद वेदन की दासता में आबद्ध होकर और असाता के दुःखद वेदन से भयभीत होकर, सुख को बनाये रखने के लिए और दुःख से छूटने के लिए प्रवृत्त होता है अर्थात् उनके प्रति राग-द्वेषात्मक प्रतिक्रिया करता है। यही राग-द्वेषात्मक प्रतिक्रिया व प्रवृत्ति नवीन संस्कारों को अर्थात् नये (कर्म) बन्धनों को जन्म देती है। जिनके फलस्वरूप प्राणी को सुख-दुःख मिलता है। वह उस सुखात्मक (साता), दुःखात्मक (असाता) वेदना का भोग कर पुनः नवीन कर्म-बंध करता है। इस प्रकार कर्म के बंध व उदय का चक्र बीज व फल की तरह संतति रूप में सतत चलता रहता है।
यह नियम है कि जिसका उदय होता है, उसका व्यय होता है। अतः साता हो या असाता दोनों ही नहीं रहने वाली है, अनित्य है, विनाशी है। कोई लाख प्रयत्न करे, फिर भी साता सदा बनी रहने वाली नहीं है और असाता आने से रुकने वाली नहीं है। जो बनी नहीं रहने वाली है उसे बनाये रखने का प्रयत्न करना और जो आने से रुकने वाली नहीं है ऐसी असाता को रोकने का प्रयत्न करना व्यर्थ है, भूल है। इस भूल के रहते साता-असाता के, सुख- दुःख के चक्र से कभी मुक्ति नहीं मिलने वाली है।
सुख-दुःख से मुक्ति पाने का एक ही उपाय है कि साता-असाता वेदन रूप सुख- दुःख के प्रति साक्षी भाव, द्रष्टा भाव या समभाव रखा जाये, उनका भोग न किया जाय। यह नियम है कि जो भोग करता है, भोक्ता होता है वह ही कर्ता होता है। जो कर्ता होता है वह कर्म से सम्बन्ध स्थापित करता है। अतः कर्ता के ही कर्म का बंध होता है। बंधा हुआ कर्म साता-असाता के रूप में उदय आता है। अतः भोग ही समस्त सुख-दुःख के चक्र का मूल कारण है। यहाँ यह स्मरण रहे कि साता-असाता वेदना या सुख-दुःख कर्म-बंध का कारण नहीं है, कर्मबंध का कारण है सुख-दुःख का भोग । सुख के प्रति राग करना सुख का भोग है और दुःख के प्रति द्वेष करना दुःख का भोग है। राग में सुख की दासता और द्वेष में दुःख का भय अंतर्निहित है। यद्यपि दासता और भय
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वेदनीय कर्म