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अर्थात् मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ, सब प्राणियों के प्रति मेरा मैत्री भाव है, मेरा किसी से भी वैर नहीं है। इस भाव से हृदय में प्रीति उमड़ती है जो प्राणियों की पीड़ा, शोक आदि दुःखों को दूर करने वाले अनुकंपा गुण के रूप में प्रकट होती है। जिससे साता वेदनीय कर्म का उपार्जन होता
सातावेदनीय के विपरीत असातावेदनीय है। क्रोध कषाय के उदय से द्वेष और वैरभाव उत्पन्न होता है जिससे वह दूसरों के प्रति क्रूरता या असाता उपजाने का व्यवहार करने लगता है और स्वयं द्वेष और वैर भाव की अग्नि में जलने लगता है, जिससे अशांति और खिन्नता का अर्थात् असाता का अनुभव होता है। यही असातावेदनीय कर्म का हेतु है।
तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार वेदनीय कर्म के बंध के हेतुदःवशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यद्वेधस्य। भूतव्रत्यनुकम्पादानं यसगसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमितिअद्वेधस्य।।
-तत्त्वार्थ सूत्र अ.6.12-13 __ निज आत्मा में , पर आत्मा में या दोनों आत्मा में विद्यमान दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन ये असाता वेदनीय कर्म के बंध हेतु हैं और भूत-अनुकम्पा, व्रती-अनुकम्पा, दान, सरागसंयमादि योग, क्षान्ति और शौच ये सातावेदनीय कर्म के बंध हेतु हैं। संक्षेप में कहें तो दुःख देने के परिणामस्वरूप दुःख एवं अशान्ति मिलती है और सेवा तथा संयम के परिणामस्वरूप सुख व शान्ति मिलती है। कर्म का फल : एक प्राकृतिक विधान
यह प्राकृतिक विधान है कि जैसा बीज बोया जाता है वैसा ही फल आता है और वह फल कितना ही गुना होकर मिलता है। यही विधान वेदनीय कर्म पर भी घटित होता है। जब कोई दुःख देने रूप बीज का वपन करता है तो उसका फल दुःख रूप में मिलता है और कितने ही गुना होकर मिलता है। उदाहरणार्थ- सोहन ने मोहन को गाली दी तो सोहन और मोहन दोनों उस समय दुःखी होंगे ही। कारण कि कोई भी आकुल या दुःखी हुए बिना किसी को दुःख दे ही नहीं सकता। साथ ही मोहन उस समय तो गाली के बदले में गाली देगा और आगे भी जब-जब उसे सोहन की याद आयेगी या सोहन को देखेगा, उससे मिलेगा तो उसे मन में
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वेदनीय कर्म