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अनन्तानबंधी क्रोध है। कामना उत्पत्ति के साथ जुड़े चित्त की अशान्ति, पराधीनता, जड़ता का अभाव आदि दुःखों से छुटने की भावना न होना अप्रत्याख्यानवरण क्रोध है। क्रोध की कामना निवृत्ति से, निष्काम भाव से मिलने वाले शान्ति, ऐश्वर्य के अक्षय सुख की उपलब्धि की भावना न होना, क्रोध का त्याग न करना प्रत्याख्यानावरण क्रोध है। कामना उत्पत्ति से राग-द्वेष की आग का प्रज्वलित रहना संज्वलन क्रोध है। मान कषाय
वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, अवस्था आदि अपने से भिन्न पदार्थों से तादात्म्य स्थापित कर अपने को कुछ मानना 'मान' कषाय है। देह से तद्रूप होकर अपने को देही मानना, देह जनित अवस्थाएँ बचपन, यौवन, बुढ़ापा, रोग, आरोग्य, काला, गोरा आदि अवस्थाओं से तद्रूप होकर अपने को बालक, युवा, वृद्ध, रोगी, नीरोग, काला, गोरा, सुंदर, कुरूप आदि मानना, धन से तद्रूप होकर अपने को धनी मानना, विद्या से तद्रूप होकर अपने को विद्वान् मानना अर्थात् अपने को अपने से भिन्न से तद्रूप होकर कुछ मानना अपना मूल्यांकन करना 'मान' है। मान ही मद के रूप में प्रकट होता है। मद मान का क्रियात्मक रूप है। (5) अनन्तानुबंधी मान - देह, धन, बल, बुद्धि, विद्या आदि की
उपलब्धि को ही अपना जीवन मानना, इन्हें अनन्तकाल तक बनाये रखने की अभिलाषा रखना, इनका अंत न हो जाय, इसके लिए प्रयत्नशील रहना, अपने अहं को, व्यक्तित्व को अनन्त काल तक बनाये रखने के लिए निरन्तर तत्पर रहना, मरने के बाद भी मेरा नाम
अमर रहे, इसके लिए प्रयास करना अनन्तानुबंधी मान है। (6) अप्रत्याख्यानावरण मान- मान या मद के कारण उत्पन्न महत्ता,
दीनता, गर्व, जड़ता, पराधीनता, हृदय की कठोरता आदि दुःखों की उपेक्षा करना, उन्हें दूर करने का प्रयत्न न करना, मान कषाय को
न रोकना उसका परिमाण न करना अप्रत्याख्यानावरण मान है। (7) प्रत्याख्यानावरण मान- मान के त्याग से होने वाले मृदुता, हृदय
की कोमलता, विनम्रता आदि दिव्य गुणों से होने वाले सुखों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील न होना, सजग न होना, मान या मद का त्याग न करना प्रत्याख्यानावरण मान कषाय है।
मोहनीय कर्म
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