Book Title: Astha ki aur Badhte Kadam
Author(s): Purushottam Jain, Ravindar Jain
Publisher: 26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
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- आस्था की ओर बढ़ते कदम इतने बडे संघ के नेता होने के बावजूद वह आम लोगों के गुरू थे। गुरु जो भी ऐसे जो जात पात, छुआ-छूत, रंग, नस्ल, लिंग आदि के भेदों से दूर अपनी साधना में रत रहते थे। जद उन्होंने आचार्य पद त्यागा तो जैन इतिहास में इसे आश्चर्यजनक घटना माना गया। क्योंकि जैन परम्परा के अनुसार आचार्य सारी आयु भर रहता है। आचार्य श्री को जब यह पद साधना में रूकावट बनने लगा, तो उन्होंने इस पद को एक झटके से छोड़ दिया। वह अल्पायु में संयम लेकर शीर्घ ही आचार्य पद से विभूषित हुए। वह परम साधक थे। उन्होंने स्वयं संयम पाला। हजारों साधु, साध्वीयों, समण, समणीयों को जैन धर्म में दीक्षित किया। उन्होंने हमारे जैसे हजारों परिवारों पर आर्शीवाद से मंगलमय उपकार किया।
आधुनिक संसार की समस्याओं के प्रति वह बहुत जागरूक थे। वह अणुवम का मुकावला अणुव्रत से करने में विश्वास रखते थे। आचार्य तुलसी जी का स्वभाव वच्चों में बच्चों जैसा था। वह धर्म रक्षक थे। वड़ी-२ विपत्तियां उनके जीवन में आई, दूसरें धमों के विरोध को उन्होंने हंस कर सहा। उनका सारा जीवन मानवता को समर्पित था। वह कहते थे :- "मैं पहले मानव हूं, फिर जैन हूं, फिर तेरापंथ सम्प्रदाय का आचार्य हूं। यही मेरा परिचय है।" लाखों लोगों को व्यस्न मुक्त कर, उन्हें अहिंसा, सत्य, विनय, सरलता, सहनशीलता का उपदेश दिया। मैं आज जो भी बातें इस पाठ में लिख रहा हूं सब अनुभव जन्य हैं। मुझे वैदिक दर्शन का वह श्लोक याद आता है। :
"गुरू ब्रह्मा, गुरू विष्णु, गुरू देव महेश्वर हैं, गुरू साक्षात् परमेश्वर हैं, ऐसे साक्षात् परमेश्वर को मेरी कोटिशः वन्दना।"
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