Book Title: Anand Pravachan Part 11
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 287
________________ २६६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ उपदेश सुनकर सभी लोग प्रभावित हुए । सेठ ने कहा - " आपने उपदेश सुनाकर हम पर बड़ी भारी कृपा की ।" सेठ के संकेत से सेठानी ने घर में जाकर तिजोरी खोली और उसमें से स्वर्ण - मुद्राओं से भरा थाल साधु के समक्ष रखा। सेठ ने कहा"आपने हम पर बड़ा अनुग्रह किया, लक्ष्मी की चंचलता समझाकर, अतः आप इस तुच्छ भेंट को स्वीकार करें और हमें अशीर्वाद दें ।" यह सुनते ही साधुवेशधारी बहुरुपिया उसे ठुकराकर यह कहता हुआ चल पड़ा कि “ सेठ ! इस चंचल लक्ष्मी को भला साधु क्यों ग्रहण करेगा ?" इस पर सेठ को उस साधु-वेशी के प्रति बहुत श्रद्धा उमड़ी। उसके पश्चात् वह उस नगर में एक महीने तक रुका और भिन्न-भिन्न वेश बनाकर लोगों से दान लिया । एक महीने बाद वही बहुरुपिया सेठ के पास आकर याचना करने लगा । सेठ ने उसके मुँह की ओर गौर करके देखा तो उससे पूछा - "तुम्हारा चेहरा हमारे यहाँ आये हुए साधु के सरीखा लगता है ।" बहुरुपिया बोला - " सेठ ! आपका कहना सत्य है । वह साधु मैं ही था । " सेठ ने कहा—“उस समय स्वर्णमुद्राओं से भरा हुआ थाल ले लिया होता तो आज तुम्हें याचना करने की नौबत न आती ।" बहुरुपिया बोला - " मैं बहुरुपिया हूँ । मैंने उस समय साधु का वेश पहना हुआ था । इसलिए मुझे साधुवेश के अनुरूप जो आचार-व्यवहार मर्यादायें हैं, उनकी रक्षा करना आवश्यक था ।" बाद साधुता के प्रति वह वफा - एक बहुरुपिया भी समझता है कि साधुवेश धारण करने के गुणों की— निःस्पृहता आदि की रक्षा करना आवश्यक है, तभी वेश के दार रह सकता है । साधु भी अगर अपने वेश के प्रति वफादार न रहे, वह अपनी निःस्पृहता छोड़कर भौतिक सम्पत्ति के प्रति आसक्ति रखे तो वह सच्चे माने में साधु नहीं कहला सकता, फिर तो वह उस साधुवेशी बहुरुपिये से भी गया बीता है । साधु वेश के प्रति जो साधु वफादार रहता है, वही वन्दनीय कहला सकता है । वन्दनीय साधु के स्वभाव की महक ऐसे साधुओं के स्वभाव की महक ही जगत् को बरबस उनके चरणों में वन्दन करा देती है, जगत् उनके मन-वचन-काया से होने वाली सत्प्रवृत्तियों को, सज्जनता को, परोपकारी वृत्ति को और साधुता को देखकर स्वतः झुक जाता है, उनके चरण कमलों में । ऐसे साधु के मन, वचन और काया की सत्यता और एकरूपता की छाप उसके सम्पर्क में आने वाले व्यक्ति के हृदय पर तुरन्त पड़ती है । इसीलिए कहा हैमनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् वन्दनीय-महनीय महात्मा के मन में, वचन में और कर्म में एकरूपता होती । ऐसा नहीं होता है कि वह मन में कुछ और सोचता हो, वचन से कुछ और बोलता हो, और काया से और तरह की चेष्टा करता हो । वह अपने वेष और क्रिया के अनुरूप ही वचन निकालेगा, और मन से भी तदनुरूप चिन्तन करेगा | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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