Book Title: Anand Pravachan Part 11
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 310
________________ पुत्र और शिष्य को समान मानो २८६ होती देखकर स्वयं उस पद के लिए योग्य और गुरु के गुणों से युक्त न होने पर भी ढोंग और पाखण्ड का सहारा लेकर गुरु-पूज्य पुरुष बनने की लालसा जागी । गुरुपद की महिमा का बखान करते हुए एक आचार्य ने कहा है अज्ञानतिमिरान्धानां, ज्ञानांजनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ -अज्ञानरूपी अन्धेरे के कारण अन्धे बने हुए लोगों की आंखें जिन्होंने ज्ञानरूपी अंजन आंजने की सलाई डालकर खोल दी, उन श्रीगुरु को मेरा नमस्कार हो । गुरु को नमस्करणीय भी तभी समझा गया है, जब वह अज्ञानान्धकार से अन्धे बने हुए शिष्य की आँखों पर से अज्ञान का पर्दा हटा देता है। 'गुरु' शब्द का सामान्य अर्थ होता है-भारी, अर्थात्-जो अज्ञानान्धकार मिटाने की जिम्मेवारी के भार से युक्त हो, अथवा सद्गुणों के भार से-गौरव से युक्त हो । गुरु शब्द में दो अक्षर हैं-'गु' और 'रु'। इन दोनों अक्षरों को भिन्न-भिन्न दो शब्द मानकर दोनों का समासयुक्त शब्द बनाया गया है-गुरु । इसीलिए भारतीय संस्कृति के उन्नायकों ने गुरु शब्द का विशेष अर्थ इस प्रकार किया है 'गु' शब्दस्त्वन्धकारः, 'रु' शब्दस्तन्निरोधकाः । अन्धकार-निरोधत्वाद, गुरुरित्यभिधीयते ॥ —'गु' शब्द का अर्थ है-अन्धकार और 'रु' शब्द का अर्थ है-निरोधक । दोनों शब्दों का मिलकर अर्थ हुआ—अन्धकार का निरोधक । अर्थात्-गुरु वह है, जो शिष्य के अज्ञानान्धकार को मिटा दे। भावान्धकार का निरोधक होने से ही कोई व्यक्ति गुरु कहला सकता है। गुरु शिष्य के अज्ञानान्धकार को कैसे मिटा देता है और उसे सुमार्ग पर कैसे लगा देता है इस सम्बन्ध में एक ऐतिहासिक उदाहरण लीजिए कारंजा की भट्टारक गद्दी उन दिनों अलभ्य ताड़पत्रीय ग्रन्थों की सुलभता के लिए प्रसिद्ध थी। भटारक सकलकीर्ति अध्यात्मशास्त्र के उद्भट विद्वान् थे। उनके पास दूर-दूर से अनेक ज्ञान-पिपासु छात्र आते, और अध्ययन करके अपने ज्ञान की श्रीवृद्धि करते थे। एक दिन सुदूर दक्षिण का एक निर्धन, किन्तु मेधावी छात्र सुब्बैया वहाँ आया । उसने पारे से सोना बनाने के ताड़पत्र-लिखित 'पारद रसायनशास्त्र' ग्रन्थ का अध्ययन करने हेतु भटटारक गुरुजी से आज्ञा माँगी । भट्टारकजी ऐसे शास्त्रों को पढ़ने की अनुमति प्रायः नहीं देते थे, क्योंकि वे समझते थे, इनका दुरुपयोग ही लोग भधिक करेंगे । वे अपने गुरु-पद के गौरव को समझते थे। सुब्बैया ने उनसे बहुत ही अनुनय-विनय की तथा उनकी (भटटारकजी की) आज्ञा के बिना इस शास्त्र में अंकित विद्या का उपयोग न करने की प्रतिज्ञा कर ली, तब भटारकजी ने उसे एक सप्ताह के लिए वहीं एक कक्ष में बैठकर अध्ययन करने की अनुमति दे दी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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