Book Title: Anand Pravachan Part 11
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 333
________________ ३१२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ - मन को रोकते ही राजा लूंठ के समान रह गया-आत्माश्रित । मन-वचनकाया तीनों योगों के स्थिर होते ही आत्मानुभव हुआ। अनिर्वचनीय आनन्द आया । इस स्थिति में काफी देर तक राजा रहे । तब ऋषि ने पूछा-"विदेहराज ! हुआ तुम्हें आत्मानुभव ?" जनक राजा ऋषि अष्टावक्र के चरणों में गिरकर बोले"समझ गया गुरुदेव ! मन-वचन-काया के स्थिर होने पर ही आत्मानुभव होता है।" अष्टावक्र बोले-“अब आप आसक्ति छोड़कर मन-वचन-काया का उपयोग करिये।" इस प्रकार ऋषिगण आत्मानुभूति के सच्चे मार्गदर्शक होते थे। ऋषि : पाप-विशोधक ऋषियों की यह भी परम्परा रही है कि वे समाज में या समाज के किसी विशिष्ट व्यक्ति में या राजा में कोई पूर्वकृत अशुभकर्म होता तो उसके लिये उचित प्रायश्चित्त देकर उसकी आत्मविशुद्धि करा देते थे। जिससे पापकर्मजनित कोई विघ्नबाधा होती तो वह दूर हो जाती। मैं रघुवंश का एक उदाहरण देकर इसे समझाता हूँ गृहस्थाश्रम का अन्त निकट आ चला। राजा दिलीप के कोई सन्तान नहीं हुई । वानप्रस्थ ग्रहण करने से पूर्व राज्य के लिये योग्य उत्तराधिकारी की उन्हें चिन्ता थी, और सुलक्षणा रानी को नि:संतान होने का दुःख था। दोनों ने इस अन्तराय को दूर करने हेतु एवं पूर्वकृत अशुभकर्मनिवारण करने हेतु ऋषि वशिष्ठ की सेवा में पहुँचकर साधना करने का निश्चय किया। तदनुसार दोनों वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में पहुँचे और महर्षि के समक्ष अपनी चिन्ता निवेदित की। एक क्षण मौन रहकर महर्षि ने दिलीप का भूतकाल देखा-'पूर्वजन्म में दिलीप ने एक गाय के बछड़े को बहुत कष्ट दिया था। इस कारण गाय बहुत दुःखी हो गई थी। यही कारण है कि उस अशुभ कर्म के फलस्वरूप राजा दिलीप को इस जन्म में सन्तान-सुख से वंचित होना पड़ा है।' ऋषि वशिष्ठ ने पूर्वकृत अशुभकर्म को संतान न होने का कारण बताया और इस पूर्वकृत पापकर्म का प्रायश्चित्त करके उसका निवारण करने की प्रेरणा दी । और कहा- "इसके लिए तुम दोनों को कुछ दिन तपश्चर्या करनी होगी। बोलो, तुम्हें स्वीकार है न !' दिलीप ने हाथ जोड़कर कहा- "गुरुदेव ! आप जो कुछ कहेंगे, उसमें हमारा हित ही होगा।" इससे आगे की बात रानी सुलक्षणा ने पूरी की- 'देव ! आपकी प्रत्येक आज्ञा हमें शिरोधार्य होगी। हम तप करने के लिए राजी हैं।" वशिष्ठ ने राज दम्पति को आशीर्वाद देते हुए आश्रम की नन्दिनी गाय को बताकर कहा-“कल प्रातःकाल से आप दोनों को इस नन्दिनी गाय को चराने जाना होगा। इस गाय की सेवा का उत्तरदायित्व आप दोनों पर होगा।" "आपका आदेश शिरोधार्य है, गुरुदेव !" दोनों ने कहा । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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