Book Title: Anand Pravachan Part 11
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 337
________________ ३१६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ होते, अपितु क्रमशः होते हैं। क्योंकि आवलिका का काल ही अत्यन्त सूक्ष्म है, बुद्धि अतीव चपल है । जब मन इन्द्रियसंयुक्त होता है, तभी वह ज्ञान का हेतु होता है। पैर और मस्तक ये दोनों दूर-दूर अवयव हैं, उनका उपयोग एक काल में कैसे हो सकता है ? समस्त असंख्यात प्रदेशों में एक वस्तु का उपयोग हुआ, फिर दूसरी वस्तु का उपयोग होने में जीव का कौन-सा अंश बाकी रहा, जिससे दूसरा उपयोग हो ? अतः काल अति सूक्ष्म है, इस कारण क्रमशः उपयोग हुआ है, किन्तु तुम छदमस्थता के कारण समझते हो कि समकाल में (युगपत्) मैंने दो क्रियाओं का अनुभव किया। एक युवक कमल के एक पर एक रखे हुए सौ पत्तों को बींधता है, वह यों समझता है कि मैंने एक ही काल में सभी पत्त बींध डाले । मगर एक पत्ता बींधे बिना उसके नीचे का दूसरा पत्ता नहीं बिंधता । इसलिए प्रथम पत्त के बींधने का काल अलग है, दूसरे को बींधने का काल अलग । इस प्रकार क्रमशः तीसरे आदि पत्तों के बींधने का काल पृथक-पृथक है, उसी प्रकार उपयोग भी क्रमशः होता है, युगपत् नहीं। एक व्यक्ति पापड़ खा रहा है। उस समय वह आँख से पापड़ का रूप देखता है, नाक से उसकी गन्ध भी लेता है, जीभ से स्वाद भी चखता है, पापड़ हाथ में है, इसलिए स्पर्शेन्द्रिय द्वारा स्पर्शज्ञान भी होता है, पापड़ खाते समय खड़खड़ शब्द भी होता है, उसे कान सुनता भी है। इन पांचों इन्द्रिय-विषयों का ज्ञान क्रमशः होता है, मगर काल की सूक्ष्मता के कारण तथा मन के शीघ्रचारी होने से व्यक्ति को ऐसा प्रतिभास होता है कि मैं पाँचों का अनुभव समकाल में करता हूँ। इसी प्रकार तुम अपनी दोनों क्रियाओं के अनुभव के विषय में भी समझ लो। इस पर आर्य गंग कुतर्क करने लगे, अपना कदाग्रह नहीं छोड़ा। अतः आचार्य ने उन्हें गच्छ-बहिष्कृत कर दिया। संघ बहिष्कृत आर्य गंग विहार करते हुए राजगृह पहुँचे, वहाँ मणिनाग नामक नाग के चैत्य के निकट ठहरे । वहाँ धर्मसभा जमी । आर्य गंग ने देशना दी, उस समय जब वे एक समय में दो क्रियाओं का उपयोग होने की प्ररूपणा करने लगे तब मणिनाग ने कुपित होकर कहा-"अरे दुष्ट शिष्य ! तुम यह खोटी प्ररूपणा क्यों कर रहे हो ? मैंने स्वयं भगवान् महावीर के मुख से समवसरण में एक समय में एक क्रिया के अनुभव की प्ररूपणा सुनी थी। तुम क्या सर्वज्ञ प्रभु से भी बढ़कर ज्ञानी हो गये हो कि उलटी प्ररूपणा करते हो ? अतः हठवाद छोड़ दो। अन्यथा, मैं यहीं तुम्हारी सब प्रतिष्ठा नष्ट-भ्रष्ट कर दूंगा।" मणिनाग देव के वचन सुनकर पूर्वोक्त युक्तियों पर पुनः चिन्तन करके आर्य गंग पुन: असली राह पर आ गये। प्रतिबोध पाया । अपनी गलती के लिए “मिच्छामि दुक्कडं" दिया। गुरु के पास जाकर आलोचन-प्रतिक्रमण करके शुद्ध हुए और पुनः सिद्धान्त में स्थिर हुए। ऋषि और देव में तुल्यता के कारण बन्धुओ ! जिस प्रकार देव भूले-भटके व्यक्ति को प्रतिबोध देकर स्थिर करते हैं, वैसे ही ऋषि भी भूले-भटके को प्रतिबोध देकर पुनः सन्मार्ग में स्थिर कर देते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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