Book Title: Anand Pravachan Part 11
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 320
________________ पुत्र और शिष्य को समान मानो २६६ गुरु ज दिखाई देते हैं, किन्तु अन्तर् में द्राक्षा जैसे मधुर और कोमल फल को भी साक्षात् दीक्षा देते हैं, ऐसे कतिपय विरले ही गुरु इस संसार में जयवन्त हैं। गरु : जीवन का निर्माता कलाकार वास्तव में गुरु शिष्य का जन्मदाता नहीं, परन्तु माता-पिता से भी बढ़कर निर्माणकर्ता है, वह जीवन जीना सिखाता है। यही कारण है कि माता-पिता की अपेक्षा भी गुरु के प्रति शिष्य विशेष ऋणी है । अलेक्जेंडर मेसीडोन (Alexander Macedon) ने इसी बात का समर्थन किया है “I am indebted to my father for living, but to my teacher for living well." -जीवन देने के लिए में अपने पिता का ऋणी हूँ, लेकिन उससे भी बढ़कर गुरु का ऋणी हूँ, जिन्होंने मुझे अच्छी तरह जीवन जीना सिखाया। गुरु जीवन का महान् कलाकार है। जैसे भौंडे, भद्द, टेढे-मेढ़े, खुरदरे पत्थर को लेकर मूर्तिकार अपनी पैनी छैनी एवं औजारों से काट-छीलकर सुन्दर देव मूर्ति बना देता है, जो भविष्य में पूजनीय बन जाती है, वैसे ही गुरु असंस्कृत, अनघड़ और अप्रशिक्षित शिष्य को अपनी वाणी, काया और मन से घड़कर सुन्दर, स्वस्थ, सुसंस्कृत, प्रशिक्षित जीवन का रूप दे देता है । इसीलिए तिलोक काव्य संग्रह में गुरु को शिष्य के जीवन का सुधारक, निर्माणकर्ता एवं परम उपकारी बताया हैजैसे कपड़ा को थान दरजी बेतत आन, खंड-खंड करे जाण देत सो सुधारी है। काष्ठ को ज्यों सूत्रधार, हेम को कसे सुनार, . माटी के ज्यों कुम्भकार पात्र करे त्यारी है। धरती के किरसान, लोह के लुहार जान, शिलावट शिला आण, घाट घड़े भारी है । कहत तिलोकरिख सुधारे ज्यों गुरु सीख, गुरु उपकारी नित लोजे बलिहारी है। भावार्थ स्पष्ट है । जैसे दर्जी कपड़े का थान लेकर पहले नाप लेता है, फिर काटकर सीता है, इस प्रकार कपड़े को सुधारता है, जैसे काष्ठ को काट-छीलकर बढ़ई अच्छी वस्तुएं बनाता है, सुनार सोने को काट-पीटकर गहने बनाता है, कुम्हार मिट्टी को सान-गूंदकर बर्तन बनाता है, किसान भूमि को समतल करता है, लुहार लोहे को तथा सिलावट शिला को काट-छीलकर अनेक रूप देता है, वैसे ही पितृ-हृदय लेकर उपकारी गुरु शिष्य को अनुशासन, प्रशिक्षण, भूल-सुधार आदि से घड़ता है; उसे तैयार करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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