Book Title: Anand Pravachan Part 11
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 330
________________ ऋषि और देव को समान मानो ३०६. सर्वार्थ को –— परमार्थ को प्रधानता देंगे । इस विषय में वे शीघ्र ही निर्णय कर लेते हैं, मोह-माया में पड़कर बुद्धि को स्वार्थ में लिपटाकर वे सत्य को ओझल नहीं करते । एक उदाहरण द्वारा मैं अपनी बात स्पष्ट कर दूं अहमदाबाद के 'सस्तु साहित्यवर्धक कार्यालय' के संस्थापक भिक्षु अखण्डानन्दजी थे । वे अपना घर-बार, कुटुम्ब - कबीला और सर्वस्व सम्पत्ति छोड़कर संन्यासी बन गए थे । एक बार उनके ऋषिपद की कसौटी करने हेतु एक सेवक आकर कहने लगा – “स्वामीजी ! मुझे आप से एक प्रार्थना करनी है । आप कबूल करें तो कहूँ । मेरी बात को आप फेंक दें तो मुझे नहीं कहनी है ।" स्वामीजी - " कहो भाई, क्या कहना है आपको बात को पहले जाने बिना ही कबूल कर लेना नीति विरुद्ध है । अगर आपकी बात मेरे ऋषिधर्म के साथ सुसंगत होगी तो मैं अवश्य स्वीकार करूंगा । आप खुशी से कहिये ।" सेवक ने मन में बात जमाकर धीरे से कहा - " स्वामीजी ! एक तरह से देखें तो मेरी बात का उद्देश्य लोक-कल्याण ही है ।" स्वामीजी – “लोक-कल्याण की कोई भी बात हो तो आप खुशी से कहें । जनसेवा या लोक-कल्याण करना तो ऋषियों का परम कर्त्तव्य है । किसी भी प्रकार के अवरोध के बिना सतत जनसेवा में प्रवृत्त रहने के लिए ही तो मैंने यह भगवा वेश धारण किया है । " सेवक — “स्वामीजी ! मैं जो कुछ कहूँ उस पर आप उदार हृदय से विचार करना । पँसे के अभाव में आपके प्रपौत्र की पढ़ाई रुकी हुई है । इस बारे में आप सक्रिय रुचि लें तो उसकी पढ़ाई आगे चल सकती है। इसमें आपको तो सिर्फ जीभ ही चलानी है । आप सम्मति देंगे तो यह कार्य आसानी से हो जायेगा । आप चाहें तो इस संस्था से भी इसे मदद दिला सकते हैं ।" सेवक की बात सुनकर भिक्षु अखण्डानन्दजी विचार में पड़ गये । उनकी दृष्टि के समक्ष अपने पूर्वाश्रम का चित्र उपस्थित हो गया । वास्तव में उनके पुत्र की आर्थिक स्थिति कमजोर थी ही । इस प्रश्न पर कुछ क्षण गम्भीर चिन्तन करने के पश्चात् स्वामीजी बोले"भाई ! आपने कहा, वह कार्य लोक-कल्याण का अवश्य है, मगर स्वस्थचित्त से सोचा जाये तो इस कार्य के पीछे स्वार्थ की गन्ध तो है ही । ऋषि, मुनि एवं संन्यासी को तो मन-वचन-कर्म से शुद्ध होकर, स्वार्थ से ऊपर उठकर लोक-कल्याण का कार्य करना चाहिए । इसके लिए सभी सरीखे हैं । इसी दृष्टि में परिजन, परजन, गिरिजन या हरिजन जैसे भेदभावमूलक अलग-अलग खाने नहीं हैं । आर्थिक तंगी के कारण क्या मेरे अकेले गृहस्थाश्रम - पक्षीय संतान की पढ़ाई रुकी हुई है ? दूसरे असंख्य विद्यार्थियों की पढ़ाई भी तो पैसे के अभाव में रुकी हुई है । संसार छोड़ने के बाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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