Book Title: Anand Pravachan Part 11
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 325
________________ ३०४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ होकर बह रही है । इसके बाद आचार्य ने अपने शिष्य-साधु से कहा - " जाओ वत्स ! देख आओ तो गंगा किस दिशा में बहती है ?" साधु-शिष्य विचार करने लगा - 'गंगा तो पूर्वाभिमुखी बहती है, यह मैं भी जानता हूँ, गुरुजी भी जानते हैं, फिर भी मुझे देखने के लिए भेज रहे हैं, इसके पीछे कोई न कोई रहस्य होगा ।" यों सोचकर वह शिष्य गंगा तट पर गया, स्वयं देखकर निश्चय किया कि गंगा पूर्वाभिमुखी बहती है । वहाँ खड़े लोगों से भी पूछा तो उन्होंने भी ऐसा ही कहा । वहाँ से लौट कर गुरु के उस शिष्य ने कहा - " मेरी दृष्टि में तो गंगा पूर्वाभिमुखी बहती है । इसका रहस्थ तो गुरुजी जानें।” राजा ने दोनों व्यक्तियों के पीछे गुप्तचर भेजा था, उन्होंने आकर दोनों के समाचार राजा को पहले ही दे दिये थे । राजा को मानना पड़ा कि राजपुत्र की अपेक्षा साधु-शिष्य बढ़कर है, विनय में, बुद्धि में, वाणी कौशल में । शय्यंभवाचार्य का मनक नाम का पुत्र था, वही उनका शिष्य था । शिष्य के प्रति गुरु का मातृवत् व्यवहार योग्य गुरु अपने प्रति समर्पित शिष्य के प्रति माता की तरह करुणा और वात्सल्य की गंगा बहाते हैं । जो शिष्य अपने हितकारी एवं पूछने योग्य गुरुओं से पूछ कर कार्य करता है, उसके किसी भी कार्य में विघ्न नहीं होता । जिस प्रकार माता अपने पुत्र के रुग्ण होने पर अपना सब दुःख भूलकर उसकी परिचर्या में जुट जाती है, उसी प्रकार सद्गुरु भी रुग्ण शिष्य के लिए स्वयं कष्ट सहकर उसकी सेवा में जुट जाते हैं । मैंने एक बार एक दृष्टान्त सुनाया था कि एक सद्गुरु ने शिष्य के दुसाध्य रोग को देखकर उपाय सोचा और एक दिन एक रूपं को आते देख शिष्य से कहा-" वत्स ! इस साँप के दाँत गिन आओ ।" गुरु आज्ञा बिना किसी तर्क के हितकारी समझकर विनीत शिष्य ने साँप का मुँह पकड़ा। ज्यों ही साँप के हाथ लगाया, उसने दंश मार दिया। गुरुजी ने उस शिष्य को कम्बल उढ़ाकर सुला दिया । थोड़ी ही देर में रोग के कीड़े बाहर निकल गये । रुग्ण शिष्य बिलकुल स्वस्थ हो गया । बन्धुओ ! इसीलिए नीतिवाक्यामृत में शिष्य को निर्देश किया गया है — "पितरमिव गुरुमुपचरेत" गुरु के प्रति पिता के तुल्य व्यवहार करे । वास्तव में, गुरु का महान उत्तरदायित्व तो है ही, शिष्य को पुत्रवत् मानकर उसके जीवन निर्माण करने का, परन्तु अगर शिष्य ही गुरु आज्ञा न माने, उनकी बात न सुने, अपनी मनमानी करे तो गुरु क्या कर सकते हैं ? इसलिए शिष्य का भी दायित्व हो जाता है कि वह एक पिता के सच्चे सपूत की तरह अपने गुरु का सच्चा शिष्य बने । सच्चा शिष्य अपने गुरु के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित होता है, वह गुरु के लिए प्राण न्योछावर करने को तैयार होता है, गुरु की प्रत्येक आज्ञा को वह शिरोधार्य करके क्रियान्वित करता है । इसीलिए महर्षि गौतम ने गुरु के उत्तरदायित्व के गर्भ में शिष्य की शिष्यता का भी संकेत कर दिया है । 'पुत्ताय सीसा य समं विभत्ता' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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