Book Title: Anand Pravachan Part 11
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 334
________________ ऋषि और देव को समान मानो ३१३ प्रातःकाल नन्दिनी वन की ओर चली। राजा दिलीप गाय के पीछे-पीछे वीरवेश में सुसज्ज होकर चले । उनके पीछे पदत्राणरहित रानी सुलक्षणा; जो अतीव सुकुमारी थी, फिर भी पति के साथ नन्दिनी गाय को चराने लगी। नन्दिनी जब चलती तो दिलीप भी उसके पीछे पीछे चलते, वह बैठती तभी वे बैठते थे। नन्दिनी कभी अस्वस्थ दीखती तो दिलीप और सुलक्षणा दोनों रातभर जागकर उसका उपचार करते। उनके लिए जप-तप आदि नित्य-नियम एकमात्र नन्दिनी की सेवा थी । गुरुदेव की गाय की वे प्राण-प्रण से सेवा और सुरक्षा करते थे। ऋषि वशिष्ठ का इसमें अपना कोई स्वार्थ नहीं था; न ही दिलीप से सेवा लेकर किसी बड़प्पन की उन्हें आकांक्षा थी। इस बहाने वे दिलीप राजा के पापों का प्रक्षालन कराना चाहते थे। वही सब हो रहा था। शीत, ग्रीष्म, वर्षा, यों ऋतुएं बदलती गई, पर दिलीप की साधना में कोई अन्तर न पड़ा । शरद ऋतु गई, हेमन्त ने प्रवेश किया। दिलीप वनश्री की अपूर्व शोभा को निहारने में एकाग्र हो रहे थे, तभी नन्दिनी पर एक सिंह गर्जना करके झपटने वाला ही था कि दिलीप का ध्यान भंग हुआ। वे फुर्ती से सिंह के पास पहुंचे। दोनों ने समझाया कि आप हमारा शरीर भक्षण कर लें, पर इस नन्दिनी गाय को छोड़ दें। सिंह ने भी मनुष्यवाणी में दिलीप को बहुत समझाया। आखिर दिलीप की उत्कृष्ट गोभक्ति देख सिंह अदृश्य हो गया। ऋषि वशिष्ठ नन्दिनी को लेकर राजदम्पति को आते देख अतीव प्रसन्न हुए । उन्होंने आज की घटना अपने अन्तर्ध्यान से जान ली। दोनों से कहा-"तुम्हारी इस तपश्चर्या से पूर्वकृत अशुभकर्म क्षय हो चुके हैं। अब तुम अपने स्थान पर लौट जाओ।" इसके पश्चात् रानी सुलक्षणा गर्भवती हुई और उसने रघु को जन्म दिया। जिसके नाम पर 'रघुवंश' कहलाया। सच है, परोपकार-परायण ऋषि दूसरों की आत्म-शुद्धि के लिए इस प्रकार निःस्वार्थ प्रेरणा देते रहते थे। ऋषि : बोध-प्राप्ति के केन्द्र प्राचीनकाल में ऋषि समाज के तथा राजाओं के मार्गदर्शक होते थे । वे निःस्वार्थ भाव से जो उचित, न्याय्य व हितकर लगता, वह कह देते थे। उनकी वाणी के पीछे तप-त्याग का इतना बल होता था कि मार्गदर्शन लेने के लिए जो भी जाता, वह प्रभावित हो जाता है, और उनके वचन को शिरोधार्य किये बिना न रहता । उन्हें अर्थ (बात) सोचकर बोलना नहीं पड़ता था, किन्तु उनके मुख से जो शब्द निकलता था, उसके पीछे अर्थ दौड़कर आता था। इसीलिए कहा गया है लौकिकानां हि साधूनामर्थे वागनुवर्तते । ऋषीणां पुनराधानां वाचोऽर्थोऽनुधावति ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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