Book Title: Anand Pravachan Part 11
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 291
________________ २७० आनन्द प्रवचन : भाग ११ विश्वजित ने फिर पूछा - " उसका प्रमाण ?” उत्तर में आगन्तुक ने अपना दाहिना हाथ आगे बढ़ा दिया । अनामिका पर शोभित मुद्रिका में साफ लिखा था"सम्राट तोमराज !” और तब विश्वजित् ने अपना आसन छोड़ दिया और तोमराज को हृदय से लगाते हुए कहा - "सम्राट ! हम आज आपसे पराजित हुए । आप सम्राट नहीं, हमारे गुरु हैं, मार्गदर्शक हैं । सचमुच, जिस राष्ट्र में संत को सम्मान नहीं मिलता, वह पथभ्रष्ट और खोखला हो जाता है ।" संत देवलाश्व मुक्त कर दिये गये और विश्वजित की सेनाएं वापस लौट गईं । वन्दनीय साधु को वन्दन करने का फल साधु को वन्दन करने का फल इसलिये महान है कि साधु को वन्दन करने से, उनका सत्संग करने से कोई न कोई हितकर वचन सुनने से कल्याण हो सकता है । सम्यक्त्वरूपी बोधिबीज मिलने से मोक्ष का द्वार खुल सकता है । मोक्षमार्ग की साधना की प्रेरणा भी साधुवन्दन का ही पारम्परिक फल है । जीवन की उलझी हुई गुत्थियाँ वन्दनीय साधु- सम्पर्क से सुलझ जाती हैं, नया रास्ता मिल जाता है, नई सूझ-बूझ मिलती है । इसीलिये उपासकदशांग सूत्र में कहा गया है— तं महाफलं गच्छामि जाव पज्जुवासामि - उस महाफल के पास जाऊं यावत् पर्युपासना करू । महाफल का अर्थ कोई सांसारिक फल नहीं, किन्तु मुक्तिरूप फल है । साधुदर्शन और वन्दन का आनुषंगिक फल कदाचित् सांसारिक भी मिल सकता है, धन-सम्पत्ति, सुखी परिवार, प्रेमी कुटुम्ब, मित्रजन आदि का अच्छा संयोग मिल जाता है, परन्तु मूल महाफल कर्मक्षयरूप मोक्ष या निर्जरा है । एक उदाहरण लीजिये – महाविदेह क्षेत्र में गान्धार नगर था । वहाँ लक्ष्मीसेन राजा का पुत्र विजयसेन था । वहीं सुवसु नामक पुरोहित का विभावसु नामक पुत्र था । विजयसेन राजकुमार और पुरोहित - पुत्र विभावसु में गाढ़ मंत्री थी । एक बार पुरोहित - पुत्र के शरीर में भयंकर रोग उत्पन्न हुआ, जिसके कारण वह अकाल में ही काल कवलित हो गया । इसी अवसर पर गान्धार पर्वत पर चार मुनि पधारे । वहाँ उन्होंने चातुर्मास किया । गुप्तचर ने आकर राजकुमार को समाचार दिया। राजकुमार को साधुओं के प्रति अपार श्रद्धा-भक्ति थी । इसलिये उनकी वन्दना करने गया । वहाँ मुनिराजों को स्वाध्याय करते देखा । धर्मोपदेश सुना और पुनः वन्दन करके घर लौटा। उसके पश्चात् वह प्रतिदिन नियमित रूप से मुनिवन्दन करने जाता रहता था । मुनि भी चारों मास मासक्षपण ( मासिक उपवास ) तप करते थे । चातुर्मास के अन्तिम दिन पिछली रात को राजकुमार ने सोचा - " कल प्रातः काल मुनिवर विहार करेंगे, Jain Education International For Personal & Private Use Only · www.jainelibrary.org

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