Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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उत्तम पाठ के गुणों से परिचित कराकर अपना काव्यपाठ संवारने का निर्देश देती है, तो दूसरी ओर तत्कालीन विभिन्न भाषाओं तथा विभिन्न देशों के काव्यपाठ की विशेषता से भी परिचित कराती है।
नाट्यशास्त्र के रचयिता भरत मुनि ने पाठ्यगुणों को प्रस्तुत किया था, क्योंकि नाट्याभिनय को उत्तम पाठ ही सरस बनाकर प्रस्तुत कर सकता था। सात स्वर, तीन स्थान, चार वर्ण, द्विविध काकु, पड् अलंकार और षड् अंग 'नाट्यशास्त्र' में पाठ्यगुणों के रूप में वर्णित हैं।। षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद सात स्वर हैं।
उर, कण्ठ, शिर-तीन स्थान हैं। काकु साकाङ्क्ष तथा निराकाङ्क्ष दो प्रकार की है।
उदात्त, अनुदात्त, स्वरित और कम्पित चार वर्ण हैं।
उच्च, दीप्त, मन्द्र, नीच, द्रुत और विलम्बित अलङ्कार हैं। विच्छेद, अर्पण, विसर्ग, अनुबन्ध, दीपन और प्रशमन पाठ्य के षड् अङ्ग है। इन सभी का प्रयोग रसानुसार होना चाहिए। 'काव्यमीमांसा' में भी इन सभी गुणों से युक्त पाठ ही उत्तम पाठ है। आचार्य राजशेखर ने स्वीकार किया है उत्तम पाठ ललित स्वर से, काकु से युक्त, सुस्पष्ट, अर्थानुसार विराम सहित, गम्भीर, ऊँचे नीचे स्वर का भली प्रकार निर्वाह करते हुए, संयुक्ताक्षरों में लावण्य सहित, विभक्तियों की, समास की तथा पदों की सन्धियों की
1. पाठ्यगुणानिदानों वक्ष्यामः - तद्यथा सप्तस्वराः त्रीणि स्थानानि चत्वारो वर्णाः द्विविधा काकु: षडलङ्काराः
षडङ्गानीति। सप्तस्वरा नाम-षड्जर्षभ गान्धारमध्यमपञ्चम धैवतनिषादाः त एते रसेषूपपाद्याः। त्रीणि स्थानानि उर: कण्ठः शिरः इति। । 106। उदात्तानुदात्तश्च स्वरित कम्पितस्तथा वर्णाश्चत्वारः एव स्युः पाठ्यप्रयोगे तपोधनाः द्विविधा काकुः साकाङ्क्षा निराकाङ्क्षा चेति वाक्यस्य साकाङ्क्षनिराकाङ्क्षत्वात् । 1111 उच्चो दीप्तश्च मन्द्रश्च नीचो द्रुतविलम्बितौ पाठ्यस्यैते ह्यलङ्कारा लक्षणं च निबोधत । 113।। अथाङ्गानि षट्-विच्छेदोऽर्पणं विसर्गोऽनुबन्धो दीपनम् प्रशमनमिति। तत्र विच्छेदो नाम विरामकृतः। अर्पणं नाम-लोलायमान-मधुरवल्गुना स्वरेण पूरयतेव रङ्ग यत्पठ्यते तदर्पणम्। विसर्गो नाम वाक्यन्यासः। अनुबन्धो नाम पदान्तरेष्वपि विच्छेदः अनुच्छ्वसनं वा। दीपनं नाम त्रिस्थानशोभि वर्धमानस्वरं चेति। प्रशमनं नाम तारगतानां स्वराणाम् प्रशाम्यतामवैस्वर्येणावतारणमिति। एषां च रसगतः प्रयोगः।
नाट्यशास्त्र - (भरतमुनि) (सप्तदश अध्याय)