Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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क्रमशः परम्परा बन गए। अन्धकार अपने घनीभूत रूप में केवल धुंध न होकर कवियों की दृष्टि में ऐसी वस्तु बन जाता है जिसे मुट्ठी में पकड़ा जा सके। किसी घनीभूत वस्तु को ही मुट्ठी में पकड़ना सम्भव है। किसी तरल पदार्थ अथवा धुएँ के रूप में स्थित पदार्थ को नहीं। अन्धकार को सूचीभूद्य कहने पर भी अन्धकार का घनीभूत स्वरूप प्रकट होता है। एकत्र होकर प्रगाढ़ हुए अन्धकार के पार कवियों की कल्पना के अनुसार सूई जैसी तीक्ष्ण, नुकीली और कठोर वस्तु ही जा सकती है। वस्तुतः प्रगाढ़ अन्धकार अपने आप में सर्वस्व समाहित करने वाला तथा आर पार का पता न देने वाला होता है। उसके ऐसे स्वरूप ने ही उसे कवियों की दृष्टि में सूचीग्राह्य बना दिया । कवि कालिदास ने सेना द्वारा उड़ी धूल को जिसके कारण आँखों को कुछ दिखाई नहीं देता सूचीभेद्य माना है। 1 इस घनीभूत रज के आर पार कोमल नेत्र नहीं देख सकते, उसके पार पहुंचना तो सुई की नोक के लिए ही सम्भव है। इसी प्रकार अन्धकार को भी नेत्रों द्वारा भेदकर देखना सम्भव नहीं है इसी कारण उसे सूचीभेद्य माना गया। यह सत्य न होकर भी सुन्दर कल्पना है तथा अन्धकार के सत्य स्वरूप को स्वयं कल्पना होकर भी सुन्दरता से प्रकट करती है ।
ज्योत्सना का कुम्भापवाहात्व :
कुम्भ में अथवा पात्र में ज्योत्सना को भरने का वर्णन करने की काव्यजगत् में परम्परा है, किन्तु ज्योत्सना तो केवल प्रकाश रूप है, वह न कोई तरल पदार्थ है न वस्तु जिसे किसी पात्र में भर सकना सम्भव हो, ज्योत्सना का शुभ्र प्रकाश केवल सभी वस्तुओं को प्रकाशित ही करता है तथा ज्योत्सना में रिक्त कुम्भ रखने पर उसका आन्तरिक भाग प्रकाशित हो सकता है सम्भव है इसी आधार पर कवियों ने ज्योत्सना के कुम्भापवाह्यत्व की कल्पना कर ली हो। इसके अतिरिक्त चन्द्रमा अमृतवर्षी माना गया है। किन्तु उसके द्वारा केवल ज्योत्सना का ही प्रसारण होता है। यदि चन्द्रमा द्वारा प्रसारित ज्योत्स्ना को ही अमृत रूप में स्वीकार किया जाय तो चन्द्रमा के अमृतवर्षी होने तथा उसकी ज्योत्स्ना के ही अमृत होने की कल्पना के आधार पर कवियों द्वारा ज्योत्स्ना के कुम्भापवाहयत्व रूप में वर्णन की परम्परा बनी
1. मुख्यप्रभेौः पृतनारजश्चयैः
(कुमारसम्भवम् महाकविकालिदास ) ( 14 38 ) (सेनायाः रजसां ममृहै: )