Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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इस अवसर पर कविगण प्रश्नोत्तरों के माध्यम से काव्यविषयक चर्चा करते थे। बाणभट्ट के समय में गोष्ठियों में बहत गूढ काव्यप्रहेलिकाओं की रचना होती थी भोजराज ने 'सरस्वतीकण्ठाभरण' में
विदग्धगोष्ठी में प्रयुक्त प्रश्नोत्तर तथा प्रहेलिका का स्वरूप विवेचन किया है तथा प्रहेलिका को
फ्री दागोष्ठी के विनोद में उपयोगी बताया है।
'काव्यमीमांसा' में विवेचित कवि की दिनचर्या को चतुर्थ प्रहर में भी कवि के कुछ निश्चित मित्रों की उपस्थिति में कवि द्वारा प्रात:काल की गई रचनाओं का समीक्षण होता था। काव्य के गुण दोष
की विवेचना की जाती थी। आचार्य राजशेखर की 'काव्यमीमांसा' में स्वीकार किया गया है कि कवि
के लिए आत्मनिरीक्षण आवश्यक है, तभी वह काव्यगोष्ठी में सफल हो सकता है। कवि जिस
काव्यगोष्ठी में काव्यपठन करे उसके सम्यजनों के संस्कारों से कवि के काव्य, भाषा तथा संस्कारों में समानता होनी चाहिये। परन्तु यह नियम स्वतन्त्र कवि के लिये नहीं है ।5
राजा और राजकवियों की उच्चस्तर की गोष्ठियाँ प्रायः राजभवनों में आयोजित होती थीं। इन
राज्यस्तर की विद्वद्गोष्ठियों में यद्यपि महाकवियों की ही उपस्थिति रहती होगी, किन्तु प्रारम्भिक कवियों को भी अपने काव्य के प्रचार, प्रसार के लिये काव्य के स्तर के अनुसार ही क्रमशः छोटी बड़ी काव्यगोष्ठियों में अपना स्थान बनाना अनिवार्य था। इसके अतिरिक्त प्रारम्भिक कवि उच्चस्तर की
1. भोजनान्ते काव्यगोष्ठी प्रवर्तयेत । कदाचिच्च प्रश्नोत्तराणि भिन्दीत।। (काव्यमीमांसा - दशम अध्याय) 2 सरस्वतीपुत्रोत्पत्तिप्रकरण में-विद्याविसंवादकृताश्च तेषां तत्रान्योन्यस्य विवादाः प्रादुर्भवन- प्रथम
उच्छ्वास-हर्षचरित-बाणभट्ट 3 क्रीडागोष्ठीविनोदेषु तज्ज्ञैराकीर्णमन्त्रणे परव्यामोहने चापि सोपयोगाः प्रहेलिकाः । 1501 यस्तु पर्य्यनुयोगस्य निर्भेदः क्रियते पदैः। विदग्धगोष्ठयां वाक्यैर्वा तं हि प्रश्नोत्तरं विदुः । 1521
(सरस्वतीकण्ठाभरण (भोजराज) द्वितीय परिच्छेद) 4 चतुर्थ एकाकिनः परिमितपरिषदो वा पूर्वाह्रभागविहितस्य काव्यस्य परीक्षा। (काव्यमीमांसा - दशम अध्याय) 5 "कवि : प्रथममात्मानमेव कल्पयेत्। कियान्मे संस्कारः, क्व भाषाविषये शक्तोऽस्मि, किंरुचिर्लोकः परिवृढी वा,
कीशि गोष्ठयां विनीत: कास्य वा चेतः संसजत इति बुद्धवा भाषाविशेषमाश्रयेत "इति आचार्याः। 'एकदेशकवेरिय नियमतन्त्रणा स्वतन्त्रस्य पुनरेकभाषावत्सर्वा अपि भाषाः स्युः इति यायावरीयः। (काव्यामीमांसा - दशम अध्याय)