Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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दूसरों के प्रबन्धों का अनुशीलन प्राचीन ही अर्थों के नवीन तथा मौलिक रूप में प्रस्तुतीकरण हेतु आवश्यक होता है— संभवत: आचार्य आनन्दवर्धन का ऐसा ही विचार रहा हो।
कुछ आचार्यों के अनुसार प्राचीन कवियों की रचनाओं का आलोचनात्मक अध्ययन करने से एक ही प्रकार के भाव भिन्न-भिन्न प्रकार से अपने को प्रकट करते हैं - अर्थों का मन में प्रतिभास कराने के लिए भी दूसरों के अर्थों का अनुशीलन लाभदायक होता है तथा दूसरों के द्वारा निबद्ध अर्थों की छाया पर स्वयं भी काव्यरचना की जा सकती है। आचार्यों के इस मत के विरोध में यह कहना सम्भव हो सकता है - कि एक ही भाव का मन में भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रकटीकरण तथा अर्थों का मन में प्रतिभास तभी हो सकता है जब प्रतिभा भी हो । प्रतिभारहित व्यक्ति में अत्यधिक परप्रबन्धानुशीलन भी भावों का विभिन्न रूपों में प्रतिभास नहीं करा सकता। प्रतिभा का अस्तित्व काव्यार्थों को नवीन रूप में ही निबद्ध कराता है, चाहे वे अर्थ प्राचीन ही क्यों न हों - जैसे आनन्दवर्धन के अनुसार प्रतिभा से आने वाले व्यङ्गय के संस्पर्श से अर्थ की नवीनता होती है।
जहाँ तक दूसरों के द्वारा निबद्ध अर्थों की छाया पर रचना करने का प्रश्न है - आचार्य राजशेखर को यह स्वीकार है, क्योंकि अभ्यासी कवियों की ऐसी स्थिति को वे स्वीकार करते हैं। अतः आचार्य के 'न' इति यायावरीयः इस निषेधपरक वाक्य का सम्बन्ध केवल अन्तिम वाक्य 'महात्मनां हि संवादिन्यो वुद्ध एकमेर्वाथमुपस्थापयन्ति' 'तत्परित्यागाय तानाद्रियेत' ।- -से ही विशेष प्रतीत होता है ।
आचार्यों के सभी वाक्यों का निषेधार्थक उनका वाक्य नहीं है।
आचार्य आनन्दवर्धन यह मानते हैं कि महात्माओं की बुद्धियाँ एक समान होती हैं और उनमें समान ही अर्थ का परिस्फुरण होता है। ऐसी स्थिति में यदि दूसरे कवियों के प्रबन्धानुशीलन की आवश्यकता होती है तो केवल इसी सादृश्यत्याग के कारण अर्थात् एक ही प्रकार के भावों के त्याग के लिए और जिन पर रचना नहीं की गई है उन नवीन अर्थों के ज्ञान के लिए ही दूसरे कवियों के प्रबन्धों को देखने की आवश्यकता होती है।
सभी अर्थ पूर्ववर्णित ही होते हैं और महात्माओं की संवादिनी बुद्धि में एक ही से अर्थ उपस्थित होते हैं इसलिए सादृश्यत्याग के लिए दूसरों के प्रबन्धों के अनुशीलन की आवश्यकता होती है - आनन्दवर्धन के यह दोनों विचार परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं। जब सभी अर्थ पूर्ववर्णित ही होते