Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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स्वाभाविकता सम्भव है। लोकनिन्दा आदि के भय से आत्मविचारों का तिरस्कार करके रचे गये काव्य में कृत्रिमता अधिक होती है।
अधिकांश कवियों को मृत्यु प्राप्ति के बाद ही प्रशंसा प्राप्ति की आचार्य राजशेखर की स्वीकृति समाज में सच्चे समालोचकों की भारी कमी की द्योतक है।1 कवियों के सम्बन्धियों द्वारा उनके काव्य का पूर्णत: प्रचार भी इसी अभिप्राय को व्यक्त करता है । कवि की काव्यरचना स्वयं कवि के यश का कारण होती है, दूसरों के यश का नहीं, किन्तु दूसरों के शब्द, अर्थ अपनाकर काव्यरचना की तत्कालीन परम्परा ने ही आचार्य राजशेखर को विभिन्न विषयों में कवियों को सावधान रहने का निर्देश देने की प्रेरणा दी होगी 2 दूसरों के काव्य को अपने काव्य रूप में प्रस्तुत करने की तत्कालीन परम्परा आचार्य राजशेखर के विस्तृत हरण विवेचन से प्रकट होती है। सच्चे समालोचकों की अनुपस्थिति में कवियों को ऐसे समालोचक उपलब्ध हो जाते थे जो सत्काव्य में भी दोष ही दोष प्रदर्शित करके एवम् स्वयं अपने शब्दों, अर्थों द्वारा कवि के काव्य को परिवर्तित करके उसका वास्तविक स्वरूप नष्ट कर देते थे. इस प्रकार के स्वयं को ही कवि समझने वाले समालोचकों से अपने काव्य की रक्षा का निर्देश कवि को 'काव्यमीमांसा' से प्राप्त है। एकाकी व्यक्ति के समक्ष अथवा कविमानी के समक्ष अपना काव्य प्रस्तुत करना दोनों ही कवि के काव्य के अस्तित्व के लिए हानिकारक समझे गए हैं। सम्भवत: इसी कारण काव्यपरीक्षा हेतु काव्यगोष्ठियों की उपादेयता स्वीकृत है 13
1. गीतसूक्तिरतिक्रान्ते स्तोता देशान्तरस्थिते । प्रत्यक्षे तु कवौ लोकः सावज्ञः सुमहत्यपि ॥
पितुर्गुरुनरेन्द्रस्य सुतशिष्यपदातयः । अविविच्यैव काव्यानि स्तुवन्ति च पठन्ति च ॥
काव्यमीमांसा (दशम अध्याय)
2 'किञ्च नार्द्धकृतं पठेदसमाप्तिस्तस्य फलम्' इति कविरहस्यम् । न नवीनमेकाकिनः पुरतः । स हि स्वीयं ब्रुवाण: कतरेण साक्षिणा जीयेत ।
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कविमानिनं तु छन्दोनुवर्तनेन रञ्जयेत् कविम्मन्यस्य हि पुरतः सूक्तमरण्यरुदितं स्याद्विप्लवेत च। तदाहुः
इदं हि वैदग्ध्यरहस्यमुत्तमं पठेन्न सूक्तिं कविमानिनः पुरः । न केवलं तां न विभावयत्यसौ स्वकाव्यबन्धेन विनाशयत्यपि ॥
काव्यमीमांसा (दशम अध्याय)
परैश्च परीक्षयेत् । यदुदासीनः पश्यत न तदनुष्ठातेति प्रायो वादः
काव्यमीमांसा ( दशम अध्याय)
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