Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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समुद्र, सागर तथा महासमुद्र, चन्द्रमा में शश तथा हरिण, काम ध्वज में मकर तथा मत्स्य, अत्रि के नेत्र तथा समुद्र से उत्पन्न चन्द्रमा, द्वादश आदित्यों, नारायण और माधव, दामोदर, शेष तथा कूर्म आदि, कमला और सम्पदा, -नाग और सर्प, दैत्य, दानव तथा असुर आदि की परस्पर एकता स्वीकार
करते हैं।
अपनी आवश्यकता के अनुरूप इन वर्गों तथा विषयों के प्रस्तुतीकरण का सामर्थ्य प्राप्त करना इस ऐक्य को स्वीकार करने का कारण प्रतीत होता है। किसी हरित वस्तु का कवि चाहे तो कृष्ण वर्ण में वर्णन कर सकते हैं चाहे हरित वर्ण में इसी प्रकार काव्य में अन्य वर्णों का भी परस्पर साम्य स्वीकृत हुआ है। वर्णन की विविधता को प्राप्त करना तथा काव्यजगत् में कवियों के वर्णनों में परस्पर वैषम्य होने पर जो दोष की सम्भावना हो सकती है उसे दूर करना ही इस प्रकार के वर्णनों की समान भाव से स्वीकृति का आधार है। कभी वर्णन में कृष्ण वस्तु का हरित वर्ण प्रस्तुत करने का अधिक औचित्य होता है कभी कृष्ण वर्ण । इसी प्रकार कृष्ण वस्तु कभी नील वर्ण में प्रस्तुत की जाए तो काव्य सौन्दर्य की प्रतीति अधिक होती है और कभी कृष्ण वर्ण में प्रस्तुत की जाए तो अधिक इन कविसमयों के कारण अपने वर्णनीय विषय की आवश्यकता के अनुसार जैसा वर्णन औचित्यपूर्ण हो कवि अपना सकते हैं। अपने पात्रों के विविध भावों को कवि उनके नेत्रों के द्वारा प्रकट करते हैं, इसी कारण कवियों की विविध प्रकार के भावों के प्रकटीकरण हेतु नेत्रवर्णनों की आवश्यकता के अनुरूप काव्यजगत् में नेत्रों के भी विविध वर्ण स्वीकार किए गए हैं- श्वेत, श्याम, कृष्ण तथा मिश्र सभी वर्गों में काव्यों में नेत्र वर्णन की परम्परा है। दोष की सम्भावना ही न रह जाए इसी कारण इस प्रकार के वैविध्य की स्वीकृति है। अन्यथा काव्यों में वर्णों के, वस्तुओं तथा नेत्रों के परस्पर भिन्नता रखने वाले वर्णन काव्य दोष बन जाते, क्योंकि कवि के लिए पूर्व प्रयोगों के निरीक्षण का विशेष महत्व है। किन्तु इन कविसमयों के सम्बन्ध में काव्यवर्णनों में परस्पर वैविध्य कवियों की सर्वमान्य परम्परा के रूप में स्वीकृत होने के कारण दोष नहीं
हैं ।