Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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आलेखन या चित्र उसकी अपेक्षा कुछ अधिक आकर्षक या संस्कृत होता है, वैसे ही यह अर्थ भी पूर्व अर्थ की अपेक्षा कुछ अधिक संस्कृत होने से अधिक प्रभावशाली होता है। दूसरों के भावों का भी स्वकृत संस्कार सहित ग्रहण होने से यह हरण कवियों के लिए ग्राह्य है। जिस प्रकार एक ही नट भिन्न-भिन्न
रूप में संस्कार करके भिन्न-भिन्न पात्रों के रूप में प्रतीत होता है, उसी प्रकार एक ही अर्थ विभिन्न प्रकार से संस्कार करने से विभिन्न प्रतीत हो सकता है। पूर्व निबद्ध अर्थ यदि उसी रूप में न ग्रहण किए जाकर कवि की प्रतिभा द्वारा संस्कृत रूप में ग्रहण किए जाते हैं तो सहृदय हृदय को चमत्कृत भी करते हैं। इस कारण पूर्व अर्थों को भी ग्रहण किया जा सकता है, किन्तु संस्कार के साथ ही। पूर्णत: उसी रूप में अर्थग्रहण करना दोष है। संस्कृत होने पर यदि उसकी भिन्न रूप में प्रतीति हो तो उसका दोषत्व नहीं है। उक्तिवैचित्र्य के कारण कोई भी अर्थ वही होने पर भी अन्यथा प्रतीत होता है-कवि के उक्तिवैचित्र्य का यही वैशिष्टय है। विभिन्न कवियों की अपनी-अपनी विभिन्न प्रकार की प्रतिभा होने से एक ही अर्थ भिन्न-भिन्न कवियों के काव्य में एक होते हुए भी भिन्न प्रतीत होता है तथा कवि के वर्णन स्तर की दृष्टि से ही कहीं अधिक प्रभावशाली तथा चमत्कारयुक्त होता है और कहीं कम। इस प्रकार पूर्वनिबद्ध अर्थ भी यदि पश्चाद्वर्ती कवि के अपने प्रभाव से भिन्न रूप में निबद्ध हो तो चमत्कार का कारण होगा और चमत्कारी होने से इस प्रकार का अर्थहरण कवियों के लिए ग्राह्य है।
पूर्व अर्थों का आलेख्यप्रख्य रूप ऐसा संस्कार कि वह किञ्चित् भिन्न प्रतीत हो आठ प्रकार से किया जा सकता है-समक्रम, विभूषणमोष, व्युत्क्रम, विशेषोक्ति, उत्तंस, नटनेपथ्य, (नवनेपथ्य) एकपरिकार्य, प्रत्यापत्ति।
समक्रम :
जहाँ एक समान अर्थ का ही सक्रमण किया जाए वह समक्रम नामक भेद है।। विभूषणमोष :
पूर्वरचना में अलङ्कारसहित रूप में वर्णित किसी अर्थ को ही दूसरी रचना में अलङ्कार रहित रूप में वर्णन करना विभूषणमोष कहलाता है ?
1. 'सदृशसञ्चारणं समक्रमः' 2 'अलडकृतमनलडकृत्याभिधीयत इति विभूषणमोषः'
काव्यमीमांसा - (त्रयोदश अध्याय) में सभी