SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३० ) की। तंपके प्रभावसे विजयेन्द्र सूरिको वृहदशाखा हुई और जगचन्द्र के शिष्योंकी लघु । पुनः इन्होंने स्वकल्पित पट्टाबल में लिखा है कि देवेन्द्र सूरिकी लघु शाखा हुई । जगचंद्रके शिष्योंकी नहीं। क्या सत्यवादियों के लिये यही सत्य है ? देवेन्द्र, क्षेम, कीर्त्यादि सूरियोंने शास्त्रोंमें केवल प्रशंसा को है । उन्होंने आप सदृश किसी भी स्थानपर किसीकी निन्दा नहीं की है। आपके कथनों में केवल भेदी प्रदीप्त होता है। मिल्लत नहीं । धर्मघोष जी ने अपने मत की रक्षाके लिये अन्य दुर्गति मदायक, उग्र स्वभाविक मंत्रोंका आराधना की । इन्होंने बहुत प्रयत्न से मारा, मोहन, उच्चाटन तथा वशो करणादि मंत्रोंकी साधना की । इन्हीं मन्त्रोद्वारा इन्होने चैत्र वाल गच्छीय संघ को संतप्त किया । संघको संतापित करने से ही इनका ( इनलोगोंका) नाम तपागच्छ पड़ा । यानवाही तथा परिग्रही होने पर भी इनके वर्गों ने अपने यतित्व को संसार में प्रसिद्ध किया । परम्परासे महावीर स्वामी द्वारा हमने हो पट्टावलि प्राप्त की है चैत्रगण वालेनि नहीं। इस प्रकार घोषित करने में वे जरा भी लज्जित नहीं होते। क्योंकि For Private And Personal Use Only
SR No.020617
Book TitleSagarotpatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamal Maharaj
PublisherNaubatrai Badaliya
Publication Year1926
Total Pages44
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy