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प्रथमो विलासः
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वेष द्वारा अनुरागनिवेदन से जैसे (रत्नावली १.२) में
परिणयोपरान्त नव (प्रथम) समागम में उत्सुकता से शीघ्रता करने वाली स्वाभाविक रूप से लज्जा के कारण वापस लौटने का उपक्रम किये हुये, प्रियजन (भौजाई आदि) के अनेक प्रकार के वचनों से पुनः सम्मुख ले जायी गयी, सामने पति (शिवजी) को देखकर भयभीत तथा रोमाञ्चयुक्त, हँसते हुए शिवजी द्वारा आलिङ्गन की गयी पार्वती जी तुम सब सामाजिकों के कल्याण के लिए होवे अर्थात् तुम सब का कल्याण करें।।176।।
यहाँ शिव के रोमाञ्चयुक्त वेष वाले हास से पार्वती के हृदय में अनुराग प्रकट होने से नर्म है।
चेष्टयानुरागनिवेदनाद्यथा (कुमारसम्भवे ८.३)
कैतवेन शयिते कुतूहलात्पार्वती प्रतिमुखं निपातितम् ।
चक्षुरुन्मिषति सस्मितं प्रिये विद्युदाहतमिव न्यमीलयत् ।।177 ।। अत्र पतिमुखदर्शनक्रियाजनितेन शिवस्य हासेन गौरीहृदयानुरागनिवेदनान्नर्म। चेष्टा के द्वारा अनुराग निवेदन से जैसे (कुमारसम्भव ८.३ में)
पार्वती जी की एकान्त चेष्टाओं के जानने की इच्छा से जब शंकर जी नींद का बहाना बनाकर अपनी आँखे मूंद लेते थे तो पार्वती जी उनकी ओर मुँह फेर कर एकटक देखने लगती थीं, किन्तु ज्यों ही शंकर जी मुस्कराते हुए अपनी आँखे खोल देते थे त्यों ही वह अपनी आँखे सहसा इस प्रकार मूंद लेती थीं मानो बिजली की चकाचौंध से वह अपने आप मिंच गई हों।।177 ।।
यहाँ पति के मुख को देखने की क्रिया से उत्पन्न शिव के हास से पार्वती के हृदय में अनुराग-निवेदन के कारण नर्म है।
प्रियापराधनिर्भेदोऽप्युक्ता स्त्रेधा तथा बुधैः ।
प्रियापराध निर्भेद- प्रियापराधनिर्भेद भी आचार्यों द्वारा तीन प्रकार का कहा गया है (वाणी द्वारा, वेष द्वारा तथा चेष्टा द्वारा )।२७४पू.॥
वाचा प्रियापराधनि दाद्यथा मालविकाग्निमित्रे प्रथमाङ्के (अन्ते)
देवी- (राजानं विलोक्य सस्मितम् ) 'जइ राजकज्जेसुइरिसी जिउणता अय्यउत्तस्स, तदा सोहणं भवे'। (यदि राजकार्येष्वीदृशी निपुणतार्यपुत्रस्य तदा शोभनं भवेत्।)
___अत्र ईदशी निपुणता यदीति, चतुरोक्तिपरिहासेन त्वयैव मालविकादर्शनेन नाट्याचार्ययोर्विवादः संविहित इति प्रियापराधोद्घटनान्नर्म।
वाणी द्वारा प्रियापराधनिर्भद जैसे मालविकाग्निमित्र के प्रथम अङ्क में (अन्त में )
देवी- (राजा को देखकर मुस्कराते हुए) यदि आर्यपुत्र अपने राज्य के प्रशासन में