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द्वितीयो विलासः
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तथापि उस (लक्ष्मी) को देख कर ही दुष्ट मन वाले (दुष्ट लोग) दूषित हो जाते हैं।।341 ।।
परविद्यया यथा (प्रबोधचन्द्रोदये २.४)
प्रत्यक्षादिप्रमाणसिद्धविरुद्धार्थाभिधायिनः ।
वेदान्ता यदि शास्त्राणि बौद्धैः किमपराध्यते ।।342।। परविद्या से अमर्ष जैसे (प्रबोधचन्द्रोदय २/४ में)
प्रत्यक्ष इत्यादि प्रमाणों से सिद्ध (इस जगत् ) का विरोध करने वाले वेदान्त यदि शास्त्र हैं (तो फिर) बौद्धों द्वारा कौन सा अपराध किया गया है (कि उनके ग्रन्थ प्रमाण) शास्त्र न माने जाये)।।342।।
यथा वा
गुणाधारे गौरे यशसि परिपूर्णे विलसति प्रतापे चामित्रान् दहति तव शिङ्गक्षितिपते! नवैवद्रव्याणीत्यकथयदहो मूढ़तमधी
श्चतुर्धा तेजोऽपि व्यभजत कणादो मुनिरपि ।।343 ।।
अत्र प्रौढकविसमयप्रसिद्धमार्गानुसारिणो वक्तुः परिमितद्रव्यवादिनि कणादेः महत्यसूया मूढतमधीरिति वागारम्भेण व्यज्यते।
अथवा जैसे
हे शिङ्गराज! तुम्हारे गुण के आश्रयभूत परिपूर्ण उज्ज्वल कीर्ति (यश) के शोभायमान होने पर तथा प्रताप में शत्रुओं के जल जाने पर यह आश्चर्य है कि अत्यधिक मूढ़ बुद्धि वाले कणाद मुनि भी द्रव्य नौ हैं यह कहते हैं और तेज का चार भागों में विभाजन करते हैं।।343 ।।
__ यहाँ प्रौढ़कवि (शिङ्गभूपाल) के समय के प्रसिद्ध मार्ग का अनुसरण करने वाले वक्ता परिमित द्रव्य का कथन करने वाले कणाद मुनि के प्रति महती असूया 'अत्यन्त मूढ़ बुद्धि वाले' इस कथन से व्यञ्जित होती है।
परशौर्येण यथा (हनुमन्नाटके १४.२१)
स्त्रीमात्रं ननु ताटका भृगुसुतो रामस्तु विप्रोः शुचिमारीचो मृग एव भीतिभवनं वाली. पुनर्वानरः । भो काकुस्थः विकत्थसे किमथवा वीरो जितः कस्त्वया
दोर्दस्तु तथापि ते यदि समं कोदण्डमारोपय ।।344।। परशौर्य से असूया जैसे (हनुमन्नाटक १४.२१ में)
ताड़का बेचारी स्त्री थी, भृगुपुत्र परशुराम पवित्र ब्राह्मण थे, मरीच मृग होने के नाते स्वाभावतः भीरु था और बाली तो वानर ही ठहरा, अरे काकुत्स्थ राम! बहुत डींग मारते हो, भला