________________
रसार्णवसुधाकरः
[ ३५६ ]
कार्य का कथन होने से उपसंहार है।
अथवा और क्या! आजगवभङ्ग हुआ, सेतु बाँधा गया इत्यादि से युद्धोत्साह की सिद्धि, 'विभीषण चरम स्थान पर है' से विभीषण की रक्षा करने से दयावीर, 'याचक कुबेरे को विमान दिया' से दानवीर की सिद्धि रामभद्र के द्वारा अपने किये गये की सार्थकता के कथन से उपसंहार है।
अथ प्रशस्तिः
भरतैश्चराचराणामाशीराशंसनं प्रशस्तिः स्यात् ।। ७४ ।।
( 14 ) प्रशस्ति- भरत के अनुसार सभी चराचरों के लिए आशीर्वाद की अनुशंसा करना प्रशस्ति कहलाता है।
यथा तत्रैव (बालरामायणे) - तथा चेदमस्तु भरतवाक्यम्
सम्यक्संस्कारविद्याविशदमुपनिषद्भूतमर्थाद्भुतानां
गथ्नन्तु ग्रन्थबन्धं वचनमनुपतत्सूक्तिमुद्राः कवीन्द्राः । सन्तः सन्तर्पितान्तःकरणमनुगुणं ब्रह्मणः काव्यमूर्तेस्तत्तत्त्वं सात्विकैश्च प्रथमपिशुनितं भावयन्तोऽर्चयन्तु 115621
इत्यत्र कवीन्द्राणां निर्दोषसूक्तिग्रथनाशंसनेन भावकानां च तद्ग्रन्थभावनाशंसनेन च सकलव्यवहारप्रवर्तकवाङ्मयरूपजगन्मङ्गलकथनात् प्रशस्तिरिति सर्वं प्रशस्तम् ।
जैसे वहीं (बालरामायण में ) -
तो भी ऐसा हो ( भरतवाक्य)
अभिनिवेश- पूर्वक सूक्ति रूपी मोतियों से युक्त, सन्त लोग अद्भुत अर्थों के रहस्य स्वरूप, संसार के भय को दूर करने वाले ग्रन्थिभूत वाक्यों की रचना करें तथा काव्यमूर्ति वेद के अन्तःकरण को प्रिय, अनुरूप तथा सात्त्विक कवियों द्वारा पहले से सूचित (निबद्ध) उस प्रसिद्ध तत्त्व का चिन्तन करते हुए प्रशंसा करें | 156211
-
यहाँ कवीन्द्रों की निर्दोष- सूक्ति ग्रन्थन की प्रशंसा से तथा भावकों की उस ग्रथन की भावना की प्रशंसा से सम्पूर्ण व्यवहार को प्रवर्तित करने वाले वाङ्मयरूप जगत् कल्याण के कथन के कारण प्रशस्ति है इसलिए सब प्रशस्त है।
रसभावानुरोधेन प्रयोजनमपेक्ष्य
च ।
साकल्यं कार्यमङ्गानामित्याचार्याः प्रचक्षते ।। ७५।। केषाञ्चितदेषामङ्गानां वैकल्यं केचिदूचिरे । मुखादिसन्धिष्वङ्गानां क्रमोऽयं न विवक्षितः ।।७६।।