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रसार्णवसुधाकरः
भूरिश्रेष्ठकनाम धाम परमं तत्रोत्तमो नः पिता । तत्पुत्राश्च महाकुला न विदिताः कस्यात्र तेषामपि
प्रज्ञाशीलविवेकधैर्यविनयाचारैरहं चोत्तमः ।।256।। कुल से गर्व जैसे
गौड़ राष्ट्र सर्वश्रेष्ठ है। उसमें भी अनुपम राधापुरी (नामक नगरी) है। उस (नगरी) में भी भूरिश्रेष्ठक नामक महल है। उसमें मेरे परम पूज्य (उत्तम) पिता (निवास करते) हैं और उनके पुत्र महान् कुलीन हैं जिनको कौन नहीं जानता (जिनको सभी लोग जानते हैं।) उन (पुत्रों ) में भी प्रज्ञा, शील, विवेक, धैर्य, विनय आदि सदाचारों से युक्त मैं (सबसे) उत्तम हूँ।।256।।
विद्यया यथा (बिल्हणस्य कर्णसुन्दर्याम् १/३)
बिन्दुद्वन्द्वतरङ्गिताग्रसरणिः कर्ता शिरोबिन्दुकं कर्मेति क्रमशिक्षितान्वयकला ये केऽपि तेभ्यो नमः । ये तु ग्रन्थसहस्रशाणकषणत्रुट्यत्कलङ्कर्गिरा
मुल्लेखैः कवयन्ति बिल्हणकविस्तेष्वेव सत्रयति ।।257।। विद्या से गर्व जैसे (बिल्हण की कर्णसुन्दरी १.३ में)
'शिरस्थ बिन्दु के समान (परम) कर्तव्य है' इस प्रकार (मानकर) जो भी लोग क्रमानुसार कुलपरम्परा से प्राप्त कला में शिक्षित हैं, उनके लिए नमस्कार है। तरङ्गित दो (काव्य रूपी जल की) बूंदों की शृङ्खला में विद्यमान तथा कर्णसुन्दरी (नामक ग्रन्थ के) प्रणेता विल्हण कवि उन कवियों के प्रति सहमत रहते हैं जो अनेकों (हजारों) ग्रन्थ रूपी शाण (कसौटी) पर कसे जाने के कारण काव्यकलङ्कों (काव्य-दोषों) से रहित वर्णनों द्वारा देववाणी (संस्कृत) में रचना करते हैं। 257 ।।
बलेन यथा (बालरामायणे १/५१)
रुद्रादेस्तुलनं स्वकण्ठविपिनच्छेदो हरेर्वासनं कारावेष्मनि पुष्पकस्य हरणं यस्योर्जिता केलयः । सोऽहं दुर्दमबाहुदण्डसचिवो लङ्केश्वरस्तस्य मे
का श्लाघा घुणजजरेण धनुषाकृष्टेन भङ्गेन वा ।।258 ।। बल से गर्व जैसे (बालरामायण १/५१ में)
कैलास का उठाना, अपने कण्ठ रूपी वन का काटना, इन्द्र को कारागार में रखना, पुष्पक विमान का अपहरण-जिसकी ऐसी क्रियाएं हैं वहीं मैं दुर्मद बाँहों रूपी मन्त्री वाला रावण हूँ उस मेरी (रावण की) घुनों द्वारा जर्जर धनुष को चढ़ाने या तोड़ देने से ही क्या प्रतिष्ठा है!1125811