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रसार्णवसुधाकरः
(८) द्विमूढक- स्वेच्छाचारिणी सेविकाओं द्वारा विचित्र अर्थ और अभिनय वाला तथा स्पष्ट भाव और रसों वाला लास्य द्विमूढक कहलाता है।।२५०॥
(अथ उत्तमोत्तमकम)
अपरिज्ञातपार्श्वस्थं गेयभावविभूषितम् ।
लास्यं सोत्कण्ठवाक्यं तदुत्तमोत्तमकं भवेत् ।। २५१।।
(९) उत्तमोत्तमक- अज्ञात सहचर वाला, गेयभाव से विभूषित और उत्कण्ठा युक्त वाक्य उत्तमोत्तक होता है।।२५१॥
(अथोक्तप्रत्युक्तम्)
कोपप्रसादजनितं साधिक्षेपपदाश्रयम् ।।
वाक्यं तदुक्तप्रत्युक्तं यूनोः प्रश्नोत्तरात्मक ।। २५२।।
(१०) उक्तप्रत्युक्त- युवकों (युवक-युवती) का क्रोध और प्रसन्नता से उत्पन्न उपालम्भ वाले पद के आश्रयभूत, प्रश्नोत्तरात्मक वाक्य उक्तप्रयुक्त कहलाता है।।२५२।।
शृङ्गारमञ्जरीमुख्यमस्योदाहरणं मतम् ।
लास्याङ्गदशकं तत्र लक्ष्यं लक्ष्यविचक्षणैः ।। २५३।।
इस (लास्य) का प्रमुख उदाहरण शृङ्गारमञ्जरी है। लक्ष्य-विचक्षणों द्वारा उसमें लास्य के दस अङ्गों को लक्षित किया गया है।।२५३॥
अथ समवकार:
प्राख्यातेनेतिवृत्तेन नायकैरपि तद्विधैः । पृथक्प्रयोजनासक्तैर्मिलितैर्देवदानवैः ।।२५४।। युक्तं द्वादशभिर्वीरप्रधानं कैशिकीमृदु । त्र्यवं विमर्शहीनं च कपटत्रयसंयुतम् ।। २५५।।
त्रिविद्रवं त्रिशृङ्गारं विद्यात् समवकारकम् ।
६. समवकार- समवकार (इतिहास पुराण द्वारा) प्रख्यात कथावस्तु, उस (कथावस्तु) के अनुसार देव और दानवों से मिश्रित पृथक्पृथक् प्रयोजनों वाले बारह नायकों से युक्त होता है। कैशिकी वृत्ति की न्यूनता वाला, तीन अङ्कों वाला, विमर्श- सन्धि से रहित, तीन कपटों (के वर्णन) से युक्त, तीन विद्रवों (उपद्रव) वाला तथा तीन शृङ्गारों वाला होता है।।२५४-२५६पू.।।
(प्रसङ्गवशात् यहाँ कपटत्रय, विद्रवत्रय और शृङ्गारत्रय का भी निरूपण किया जा रहा है)
मोहात्मको भ्रमः प्रोक्तः कपटस्त्रिविधस्त्वयम् ।। २५६।। सत्वजः शत्रुजो दैवजनितश्चेति सत्त्वजः ।