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दूसरी ढाल मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ही जीव को चारों गतियों में भटकाने और जन्म-मरण के दुख देनेवाले हैं। इन तीनों के दो प्रकार हैं___ 1. अगृहीत मिथ्यात्व, 2. गृहीत मिथ्यात्व। ___ 1. अगृहीत मिथ्यात्व- जो मिथ्याभाव जीव के साथ पहले से ही चला आ रहा है, उसे अगृहीत मिथ्यात्व कहते हैं।
जैसे-मिथ्यादृष्टि जीव आत्मा और शरीर को एक ही मानता है। अपने आप को सुखी, दुखी, गरीब और अमीर मानता है। धन, वैभव, मकान, स्त्री और पुत्र को अपना मानता है। अपने आप को बलवान, निर्बल, सुन्दर और कुरूप समझता है। जो राग-द्वेष, दुख और सुख देनेवाले हैं, उन्हीं में अपना सुख और दुख मानता है। शरीर के उत्पन्न होने पर अपना जन्म और शरीर का विनाश हो जाने पर अपना मरण मानता है। ___ जीव मिथ्यादर्शन के प्रभाव से अपने आत्मस्वरूप को भूल जाता है।
मिथ्याज्ञान के कारण जीव अपनी आत्मा की शक्ति को भूल जाता है, वह अपनी इच्छाओं को नहीं रोकता है। वह मोक्ष के स्वरूप को नहीं मानता है। तप, पूजन, अध्ययन को वह दुखदायक मानता है।
मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान के कारण जीव पाँचों इन्द्रियों के विषयों की इच्छापूर्ति में ही लगा रहता है, वह व्रत, नियम और संयम कुछ भी ग्रहण नहीं करता। इस प्रकार जीव मिथ्याचारित्र को धारण करता है।
2. गृहीत मिथ्यात्व : जीव द्वारा जो मिथ्याभाव इस भव में ग्रहण किया जाता है, उसे गृहीत मिथ्यात्व कहते हैं।
खोटे भेषधारी कुगुरु को, रागी-द्वेषी और अस्त्र-शस्त्रवाले कुदेवों को और हिंसक धर्म अर्थात् कुधर्म को सच्चा मानकर इनकी सेवा करता रहता है, उसे गृहीत मिथ्यादर्शन कहते हैं। ___ संसार बढ़ानेवाले, इन्द्रियों के विषयों को बढ़ानेवाले और कुमत चलानेवाले साधुओं द्वारा बनाए गये शास्त्रों को पढ़ना, पढ़ाना, सुनना, सुनाना गृहीत मिथ्याज्ञान है।
ख्याति, लाभ, पूजा, प्रतिष्ठा आदि की इच्छा रखकर, स्व और पर के विवेक से रहित होकर जो व्रत, तपश्चरण आदि क्रियाएँ की जाती हैं, वह गृहीत मिथ्याचारित्र हैं।
इस प्रकार मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र को अच्छी तरह
142 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय