Book Title: Pramukh Jain Grantho Ka Parichay
Author(s): Veersagar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 268
________________ 21. त्रितत्त्व इस अध्याय में 27 पद्य हैं। इसमें पृथ्वी, जल, अग्नितत्त्व तथा वायुतत्त्व का विस्तारपूर्वक वर्णन आया है । 22. मनोव्यापार- प्रतिपादन इसमें 35 पद्य हैं। इसमें मन के व्यापार को रोकने के लिए यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि - इन आठ योग के अंगों का कथन किया है। जो जीव मन को स्थिर कर आत्मस्वरूप में स्थिर हो सकता है वही ध्यान एवं समाधि में लीन हो सकता है। 23. रागादि-निवारण (राग - -द्वेष आदि ) इस अध्याय में 38 पद्य हैं। इसमें राग-द्वेष को रोकने की बात कही है। पूर्व प्रकरण में ध्यान की सिद्धि के लिए मन की स्थिरता को अनिवार्य बतलाया है। पर मन की स्थिरता तब तक सम्भव नहीं है जब तक कि अन्तःकरण से राग आदि नहीं हट जाते। योगी चित्त को आत्मस्वरूप में स्थिर करना चाहता है । रागादि के प्रकट होने पर ही मन को आत्मतत्त्व की प्राप्ति हो सकती है। 24. साम्यवैभव इस अध्याय में 33 पद्य हैं और इनमें साम्यभाव (समताभाव) का निरूपण किया है। राग-द्वेष-मोह के अभाव से समताभाव उत्पन्न होता है । इष्ट और अनिष्ट प्रतीत होनेवाले पदार्थों में जब समताभाव उत्पन्न हो जाता है तब योगी को इस चराचर विश्व में न तो कुछ हेय रहता है और न कुछ उपादेय ( उत्पन्न करने योग्य) रहता है। योगी व्यक्ति दूसरों के द्वारा की गयी स्तुति और निन्दा में समताभाव रखता है । 25. आर्त्तध्यान जो प्राणी पीड़ा में ध्यान करता है, उन भावों को आर्त्तभाव कहा जाता है। यहाँ पर आर्त्तध्यान के 4 प्रकारों का वर्णन है । अनिष्ट पदार्थों के संयोग, इष्ट पदार्थों के वियोग, वेदना और भोगाकांक्षा से जो संक्लेशपूर्ण चिन्तन होता है वह आर्त्तध्यान कहलाता है। इस सर्ग में 44 पद्यों में आर्त्तध्यान का विस्तारपूर्वक वर्णन है। ध्यान 266 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय

Loading...

Page Navigation
1 ... 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284