Book Title: Pramukh Jain Grantho Ka Parichay
Author(s): Veersagar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 277
________________ उत्पाद उत्सर्पिणीकाल उद्योत उपपाद जन्म उपयोग उपशम उपशम सम्यक्त्व उपसर्ग ऊर्ध्वगति एकत्व कषाय कायोत्सर्ग केवलज्ञान केवली क्रमभावी क्षणभंगु क्षयोपशम क्षायिक सम्यक्त्व गुणव्रत गुणस्थान गुप्ति गृहीत मिथ्यात्व घातिया कर्म चक्षुदर्शन चार गतियाँ : द्रव्य में नवीन पर्याय की उत्पत्ति होना । : ऐसा समय जिसमें शरीर, बल, ज्ञान, आयु आदि बढ़ते जाते हैं । : शीतल प्रकाश । : देव और नरक गति के जीवों की जन्म प्रक्रिया | : आत्मा का स्वभाव या आत्मा से निकट सम्बन्ध । : शान्त होना । : वह सम्यग्दर्शन जो निश्चित रूप से नष्ट होनेवाला है । : कष्ट, संकट, मुसीबत । : ऊपर की ओर जाना । : परपदार्थों के साथ एकता स्थापित करना । : आत्मा को दुख देनेवाले भाव । : शरीर के प्रति मोह छोड़कर परमात्मा का ध्यान करना । : समस्त द्रव्य, गुण पर्यायों को एक साथ प्रत्यक्ष जानना । : सर्व पदार्थों के ज्ञाता । : एक के बाद एक क्रम से होना । जैसे- पर्याय । : एक क्षण में ही नष्ट होनेवाला । : वह सम्यग्दर्शन जो नष्ट हो सकता है । : वह सम्यग्दर्शन जो कभी भी नष्ट नहीं होगा। : मूलगुणों को ग्रहण करने के बाद गुणव्रत ग्रहण किए जाते हैं, क्योंकि इन व्रतों के कारण मूलगुणों में श्रेष्ठता आती है । : मोह एवं योग के आधार पर जीवों का वर्गीकरण । : स्थिरता, एकाग्रता । : अपने दोषों की विशेष निन्दा करना । : कुगुरु, कुदेव एवं कुधर्म का श्रद्धान करना । : वे कर्म जो आत्मा के गुणों को नुकसान पहुँचाते हैं । : आँखों से देखना । : जीव की संसार अवस्था में चार दशाएँ होती हैंनरक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देवगति । इन्हें चार गतियाँ कहते हैं । सरल - शब्दावली :: 275

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