Book Title: Pramukh Jain Grantho Ka Parichay
Author(s): Veersagar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 259
________________ व्यवहारनय से केवली भगवान तीन लोक को देखते हैं, जानते हैं, पर वास्तव में वह अपनी आत्मा में लीन रहते हैं । निश्चय नय से केवलज्ञानी सिर्फ आत्मा को ही जानते देखते हैं। अन्त में निर्वाण अर्थात् सिद्धदशा का विस्तृत वर्णन किया है । सांसारिक विकारसमूह के अभाव का कारण 'निर्वाण' है । अन्त में एक महत्त्वपूर्ण चेतावनी दी गयी है, जो उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है यदि कोई ईर्ष्याभाव से इस सुन्दर मार्ग की निन्दा करे तो उसके वचन सुनकर इस जिनमार्ग में अश्रद्धा एवं अभक्ति मत करना । इस प्रकार हम देखते हैं कि सम्पूर्ण नियमसार में एक ही बात कही है कि निज शुद्धात्मा की आराधना में ही समस्त धर्म समाहित हैं। इसके अतिरिक्त जो भी शुभाशुभ विकल्प एवं शुभाशुभ क्रियाएँ हैं, उन्हें धर्म कहना मात्र उपचार है । अतः प्रत्येक आत्मार्थी का एकमात्र कर्तव्य निजशुद्धात्मतत्त्व की आराधना में लगे रहना ही है। निजशुद्धात्मतत्त्व का ज्ञान, श्रद्धान एवं आचरण ही निश्चय रत्नत्रय है, यही रत्नत्रय का सार है । यही नियमसार है । इस प्रकार जो श्रावक इस नियमसार ग्रन्थ का एकाग्रचित्त होकर स्वाध्याय करेगा, वह शीघ्र ही मोक्ष-‍ -सम्पदा को प्राप्त कर सकेगा । नियमसार :: 257

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