Book Title: Pramukh Jain Grantho Ka Parichay
Author(s): Veersagar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 278
________________ चेतना चौदहपूर्वों का ज्ञान च्युत होना छेदोपस्थापना जीवसमास टीकाकार तत्त्व तांडवनृत्य तिर्यग्लोक त्रस जीव द्रव्य द्रव्यकर्म द्रव्यार्थिक नय द्वादश अनुप्रेक्षा द्वादशांग दारुण उपसर्ग दिग्विजय धर्म धर्मध्यान ध्याता ध्यान ध्येय धौव्य नय नामकर्म निगोद निजात्मा निर्जरा : प्राण। : ऐसा ज्ञान जो प्राचीन परम्परा से चला आ रहा है। : त्याग करना । : पतित अवस्था को छोड़कर पुनः शुद्ध अवस्था में स्वयं को स्थापित करना । जीवों का वर्गीकरण | : : टीका के लेखक । : वस्तु : देवों द्वारा किया गया एक विशेष प्रकार का नृत्य । : मध्यलोक : दो इन्द्रियों से पाँच इन्द्रियों वाले जीव । : वस्तु । : आत्मा पर चिपकनेवाले सूक्ष्म पुद्गल कर्म । : द्रव्य अंश को जानना द्रव्यार्थिक नय है । : बारह भावना । : जैन आगम के बारह अंग । : भयानक आपत्ति आना । : छह खण्ड पर विजय प्राप्त करना । : आत्मा का निर्मल भाव । : धर्म से युक्त ध्यान करना । : ध्यान करनेवाला । : मन को एकाग्र करना । : जिसका ध्यान किया जाए। : द्रव्य की नित्यता, स्थिरता । : वस्तु के एक अंश को जाननेवाला ज्ञान । : वह कर्म जो शरीरादि का निर्माण करनेवाला है । : संसारी जीव की ऐसी दशा जहाँ वह अनन्त जीवों के साथ रहकर एक साथ आहार एवं जन्म-मरणादि करता है । : अपनी आत्मा । : कर्मों का आंशिक नाश होना । 276 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय

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