Book Title: Mrutyu Mahotsav
Author(s): Sadasukh Das, Virendra Prasad Jain
Publisher: Akhil Vishva Jain Mission

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Page 20
________________ And may there be no sadness of farewell When I embark; । For tho' from out our bourne of Time and Place The flood may bear me far, I hope to see my Pilot face to face When I have crost the bar.' (भावार्थ-गोधूली होगई । सांध्यकी चर्चकी घंटियाँ बज रहीं हैं, निशाका अन्धकार धनीभूत हो रहा है अर्थात् मृत्यु-काल पा रहा है और अब महाप्रयाणके लिए कोई दुःख नहीं होना चाहिए क्योंकि हम संसार सागरको पार करनेके लिए प्रयाणकर रहे हैं। यह महाप्रयाण हमें बहुत दूर ले जाएगा जहाँपर कि हम आशा करते हैं कि हमारा, आत्मारूपी यान के कर्णधार या माँझीसे साक्षात्कार होगा) - इस उद्धरणका भावसाम्य इस 'मृत्युमहोत्सव' के कतिपय श्लोकों से भी है । यह कविता भी हमें यह बताती है कि हमें मृत्युका दुःख नहीं करना चाहिए और यही भाव हमें 'मृत्युमहोत्सव' रचनासे भी मिलता है। अन्तर केवल दार्शनिक मान्यताओंका है। लार्ड टेनीशन किश्चियन मान्यतानुसार बताते हैं कि मरणके पश्चात् सर्वशक्तिमान नाविक ईश्वरके दर्शन होते हैं । जब कि संस्कृताचार्य जैन दृष्टिकोणकी ओर संकेत करते हैं । उनका कथन है, मृत्युके माध्यमसे ही आत्मा अपने सुकृतोंका उपभोग करता है तथा उसके मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होनेसे उसे अनन्त दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्यकी प्राप्ति होती है। लेकिन मूल में दोनों की दृष्टि यही है कि मृत्यु दुःखका कारण नहीं होनी चाहिए। इस प्रसंगमें हमें अँग्रेजी कवि श्री ब्राउनिंगकी 'रबी बेन एज़रा' (Rabbi Ben Ezra) कविता भी स्मरण आ रही है। यह कविता काफी लम्बी है । इसमें 'रबी' शब्द 'बुद्धिमान' के लिए प्रयुक्त किया गया है 'वेन एजरा' ज्यू दार्शनिकका नाम है। इसके माध्यमसे कविने बेन एजरा के जीवन-दर्शन-जिससे कि कविका भी साम्य है-को प्रस्तुत

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