Book Title: Mrutyu Mahotsav
Author(s): Sadasukh Das, Virendra Prasad Jain
Publisher: Akhil Vishva Jain Mission

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Page 32
________________ 6. The Self-knowers getting rid of Body, the root of displeasure, Live with happiness, in company of Death friend, having self-joy-treasure. आत्मादी सब दुखद पिंड, तन उसको दूर भगा करके । वे मृत्यु-मित्र संग प्रसन्न हो, रहते निज सुख-संपद को ले ॥६॥ अर्थ-प्रात्मदशि, जो प्रात्म-ज्ञानी है ते मृत्यु नामा मित्रका प्रसाद करि सर्व दुःखका देनेवाला देह पिंडको दूरी छोड़ कर सुखकी संपदाको प्राप्त होय हैं। भावार्थ-प्रात्म ज्ञानि ! समाधि मरणके प्रभाव मे, सप्तधातु मई महान अशुचि विनाशीक देहको छोड़, दिव्य वैक्रियक शरीरमें प्राप्त होकर नाना सुख संपदाकों प्राप्त होय है। समाधिमरण समान इस जीवका उपकार करनेवाला कोई नहीं है। इस देहमें नानाप्रकार दुःख भोगते हुवे, महानरोगादि दुःख भोग मरते हुवे, फिर तियंच, नर्क देहमें असंख्यात, अनन्तकाल ताई असंख्यात दु:ख भोगते हुवे और जन्ममरणरूप अनन्त परिवर्तन करते तहां कोई शरण नहीं है। इस संसार परिभ्रमणसे रक्षा करनेको कोई समर्थ नहीं । कदाचित अशुभ कर्मका मंद उदयसे मनुष्य गति, उच्चकुल, इन्द्रिय पूर्णता, सत्पुरुषोंका समागम तथा भगवान जिनेन्द्र के परमागमका उपदेश पाया है, तो श्रद्धान ज्ञान योग संयम हित, समस्त कुटुम्ब, परिग्रह में ममत्व रहित, देहसे भिन्न ज्ञानस्वभावरूप मात्मा का अनुभव करके, भय रहित, चार अाराधनाका शरण सहित मरण हो जाय तो इस समान लोकमें इस नीवका कोई हितु नहीं। जो संसार परिभ्रमणसे छूट जाना सो समाधिमरस्य नामा मित्रका प्रसाद है।। (७)

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