Book Title: Mrutyu Mahotsav
Author(s): Sadasukh Das, Virendra Prasad Jain
Publisher: Akhil Vishva Jain Mission

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Page 18
________________ कुछ 'मृत्यु महोत्सव' एक ओर जहां आध्यात्मिक और लोकोपकारक रचना है वहाँ दूसरी ओर वह अत्यन्त उत्कृष्टकोटिकी काव्यकृति हैइसमें सन्देह नहीं । मृत्यु सबके जीवनमें अविसम्भावी है । जो जन्मता वह मरता ही है यह प्रत्यक्ष सत्य है। लेकिन मरने मरनेमें अन्तर . होता है। एक वीरगति दूसरी कायरगति । विरले ही ऐसे होते हैं जो . हँसते हुए मृत्युका आह्वान कर सकें या मृत्युको ' चुनौती दे सकें। दुनियाँ मरनेसे डरती है। अधिकांशतः लोग मरते समय हा-हा करते हैं, उनके प्राण बड़ी कठिनाईसे निकलते हैं। सचमुच संसारके लिये काल अथवा मरण भय का राक्षस है। लेकिन इस राक्षससे जूझनेका मंत्र हमें 'मृत्यु-महोत्सव' से मिलता है। प्रस्तुत 'मृत्यु महोत्सव'की दृष्टि से मरण कोई 'हउा ' नहीं रहता, वह तो उपकारक मित्र बन जाता है फिर भला अपने उपकारक मित्रसे कौन डरेगा किंवा उससे कौन न मिलनेकी समुत्सुक होगा ? रचना आज्यात्मिक स्तर पर रची गई है; अतएव इसकी प्रत्येक बात जीवनके शाश्वत सत्योंपर आधारित है। यहाँपर इसके प्रत्येक प्रसङ्गकी चर्चा करना आवश्यक नहीं क्योंकि वह व्याख्या से बचनिकामें दियाही गया है। - यह रचना मात्र १८ श्लोकोंमें है-अर्थात् अत्यन्त संक्षिप्त है पर है अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं सारगर्भित । आचार्यने गागरमें सागर भर दिया है । देखिए न मुश्किलसे १ पृष्ठको भी पूराभरने वाले श्लोकोंने अपनी वचनिका के सहित तो कई पृष्ठ ले लिए, और यदि इसकी विस्तार से व्याख्या की जाय तो यथार्थमें एक विशाल कलेवर का ग्रंथराज बन जाय । लेकिन वह तो पाण्डित्य प्रदर्शन होगा-कोरा पाण्डित्य प्रदर्शन नहीं विषयकी व्याख्या भी । परन्तु उसकी आवश्यकता क्या ? मूल रचना ही इतनी प्रेरणाप्रद एवं स्वाभाविक है (अ)

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