Book Title: Mrutyu Mahotsav
Author(s): Sadasukh Das, Virendra Prasad Jain
Publisher: Akhil Vishva Jain Mission

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Page 31
________________ अर्थ-यह हमारा कर्मशत्र मेरी आत्माको देह रूपी पींजरे में क्षेप्या, सो गर्भ में पाया तिस क्षणतें सदाकाल क्षुधा, तृषा, रोम, वियोग इत्यादि अनेक दुःखनि कर व्याप्त इस देहरूपी पीजरामें रक्खा । उससे मुझे मृत्यु नामा राजा बिना कौन छुड़ावे ॥ __ भावार्व-इस देहरूपी पीज रामें, मैं कर्मरूपी शत्र द्वारा पटक्या हुवा, इन्द्रियनिके प्राधीन हुवा, नाना त्रास सहूँ। नित्यही क्ष धा अर तृषाकी वेदना त्रास देवे है । पर शास्वती श्वास उच्छास खंचना अर काढ़ना अर नानाप्रकार रोगोंका भोगना, अर उदर भरने के वास्ते अनेक प्रकार पराधीनता सहना, अर सेवा, कृषि, वाणिज्यादि करि महा क्लेशित होय रहना पर शीत उष्णके दुःख सहना, अर दुष्टों द्वारा ताड़न, मारन, कुवचन, अपमान सहना, कुटुम्बके प्राधीन रहना, धनके, राज्य के, स्त्री पुत्रादिक के अाधीन, ऐसे महान बन्दीगृह समान देहमें मरण नामा बलवान राजा बिना कौन निकाले । इस देहको कहांतांई बहता, जिसको नित्य उठावना, बेठावना, भोजन करावना, जल पावना, स्नान करावना, निद्रा लिवावना, कामादिक विषय साधन करावना, नाना वस्त्र प्राभूषण कर भूषित करना, रात दिन इस देह ही का दासपना करता करता हु आत्मा को नानाप्रकार त्रास देवे हैं, भयभीत करे हैं, आपा भलावे है। ऐसे कृतघ्न देहते निकलना मृत्यु नामा राजा विना नहीं होय । जो ज्ञान सहित, देहसों ममता छांड़िसावधानीतें, धर्म ध्यान सहित, संक्लेश रहित, वीतरागता पूर्वक, जो समाधि-मृत्यु नामा राजाका सहाय ग्रहण करू तो फिर मेरा आत्मा देह धारण नहीं करे दुःखोंका पात्र नहीं होय । समाधिमरण नामा राजा बड़ा न्यायमार्गी हैं। मुझे इसीका शरण होह। मेरे अपमृत्युका नाश होउ । सर्व दुःखप्रदं पिडं दूरी कृतात्म दशिभिः । मृत्यू मित्र प्रसादेन प्राप्यते सुख संपदा ॥६॥ (६)

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