Book Title: Mrutyu Mahotsav
Author(s): Sadasukh Das, Virendra Prasad Jain
Publisher: Akhil Vishva Jain Mission

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Page 35
________________ रोग अनेक बधे हैं । - ऐसे जीणं देहका दुःख कहां तक भोगता, जिसमें चालते, बैठते, उठते स्वास बधे है, कफकी अधिक्यता होय है। ऐसे देह का घीसना कहांतक होता ? मरण नामा दातारके बिना ऐसे निंद्य देहको छुड़ाय नवीन देहमें वास कौन करावे ? जीर्ण देहमें बड़ा असाताका उदय भोगिये है, सो मरण नामा मित्र, उपकारी दाता बिना ऐसी पासाताको कौन दूर करे। इसलिए सम्यकज्ञानीके तो मृत्यु होनेका बड़ा हर्ष है। वह तो संयमव्रत, त्याग, शील में सावधान होय ऐसा उपायकरे जो फिर ऐसे दुःखका भरया देहको धारण नहीं करे। सम्यग्यानी तो याहीको महासाताका उदय माने है ॥ सुखं दुःखं सदा वेत्ति वेहस्थश्च स्वयं व्रजेत । मत्यु भीतिस्तदा कस्य नायते परमार्थतः ।।६।। 9. Soul Knows always pleasure and pain To other world itself, it goes; When next happy world is to gain, । Who is afraid by long repose ? देहस्थ जानता है सुख दुख, ...... परलोक स्वयं जाया करता । जब है परलोक सिद्ध होता, तब कौन मृत्यु से भय करता ? ॥६ अर्थ-यह मात्मा देहमें तिष्टताहू सुखको तथा दुःखको सदा काल जागे ही है । पर परलोक प्रति ह स्वयं गमन करे है। तो परमार्थते मृत्युका भय कौनके होय ॥ भावार्थ-प्रज्ञानी बहिरात्मा है सोतो देह में तिष्टताहू मैं सुखी हूं, में दुःखी हूं, मैं मरूं हूं, मैं क्षुधावान, मैं तृषावान, मेरा नाश हवा, ऐसा माने है। पर अन्तर आत्मा सम्यग्दृष्टि ऐसे माने है जो उपज्या है सो मरेगा-पृथ्वो जल, अग्नि, पवन, पुद्गल परमाणूनिके पिंडरूप उपज्यो यह

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