Book Title: Karlakkhan Samudrik Shastra
Author(s): Prafullakumar Modi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 34
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करलक्खणं वराहमिहिरने नखोंके स्वरूपका फल इस प्रकार बताया है-जिनके नख तुषके समान ( अर्थात् धानके वल्कलके समान बहुरेखायुक्त और रूखे ) हों वे नपुंसक होते हैं, जिनके चपटे और फटे हों वे धनहीन, जिनके बुरे विवर्ण ( आभा रहित ) हों वे परमुखापेक्षी तथा जिनके ताम्रवर्ण हों वे सेनापति होते हैं । ( बृहत्संहिता ६७, ४१) ( ४६ ) मत्स्यादिफलविषये गाथासप्तकम् - बाहिरमुहसंठाणे मच्छपये' मीनसे (?) फलं होइ। अभंतराणणे पुण होहत्ति णिरंतरं सुक्खं ॥ बहिर्मुखसंस्थाने मत्स्यपदे मीनसे (१) फलं भवति । अभ्यन्तरानने पुनः भविष्यति निरन्तरं सौख्यम् ॥ यदि बाहरको मुख किये हुए मछलीका चिह्न हो तो बुढ़ापेमें (१) फल दे और यदि भीतरको मुखवाली मछली हो तो निरन्तर सुख होवे । ( ४७ ) वरपउमसंखसत्तियभदासणकुंकुमत्थिभयकुंभं। वसहगयछत्तचामर दीसहइ वज्जं च मगरं च ॥ वरपद्मशङ्खस्वस्तिकभद्रासनकुङ्कुमजलकुम्भाः । वृषभगजछत्रचामराणि दृश्यते वज्रं च मकरश्च ।। ( ४८ ) तोरण-विमाण-केऊ जस्सेए होंति करयले पयडा। तस्स पुण रज्जलाहो होही अचिरेण कालेण ॥ तोरणविमानकेतवः यस्य एते भवन्ति करतले प्रकटाः । तस्य पुनः राज्यलाभः भवति अचिरेण कालेन ॥ श्रेष्ठ पद्म, शंख, स्वस्तिक, भद्रासन, कुंकुम, जलकुंभ, बैल, गज, छत्र, चामर, वज्र, मगर, तोरण, विमान और केतु ये जिसके करतलमें दिखायी पड़ें उसे बहुत शीघ्र राज्य मिले। ४६-१ प्रतौ 'संठाणयम्मि मच्छपय' इति पाठः । ४४-१ प्रतौ 'वज्जमगरं च' इति पाठः। For Private and Personal Use Only

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