Book Title: Karlakkhan Samudrik Shastra
Author(s): Prafullakumar Modi
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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करलक्खणं
( ५९ ) पूति पाणिरेहा णिद्धा जा होति पउमसंकासा। अक्खंडांजलिणिद्धा अच्छिण्णा कोमला जस्स ॥
पूजयन्ति पाणिरेखाः स्निग्धाः याः भवन्ति पद्मसङ्काशाः ।
अखण्डाञ्जलिस्निग्धाः अच्छिन्नाः कोमलाः यस्य ॥ जिसकी हस्तरेखाएँ कमलके समान स्निग्ध, अखंड, अच्छिन्न और कोमल होती हैं, वे पूजी जाती हैं।
वाचनाचार्यादिपदसूचिका गाथासो हवइ वायणारी कणिट्ठियाहिडिमागया जवा जस्स । उज्झाउ अणमित्राए जिट्टाहिट्ठायतो सूरी॥
स भवति वाचनाचार्यः कनिष्ठिकाधः आगताः यवाः यस्य ।
उपाध्यायः अनामिकया ज्येष्ठाधः आयतः सूरिः । जिसकी कनिष्ठिकाके नीचे यव निकल आये हों यह वाचनाचार्य होता है, अनामिकाके नीचे यव निकलनेसे उपाध्याय और ज्येष्ठाके नीचे यव निकलनेसे सूरि होता है।
( ६१ ) इय करलक्खणमेयं समासो दंसिनं जइजणस्स । पुव्वायरिएहिं णरं परिक्खिऊणं वयं दिज्जा॥
इति करलक्षणमेतत् समासतः दर्शितं यतिजनस्य ।
पूर्वाचार्यैः नरं परीक्ष्य व्रतं दीयेत ॥ इस प्रकार पूर्वाचार्योंने यतियोंको करलक्षण, संक्षेपमें, बताये हैं। इनके द्वारा मनुष्यकी परीक्षा करके व्रत देना चाहिये ।
इति करलक्षणम् । * इति सामुद्रशास्त्रं समाप्तम् *
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