Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 45
________________ ३० अकटंक त्रैविध देव अंतर्मुहूर्त अंतर्मुहूर्त १ अन्तर्मुहर्तका लक्षण (मुहूतस कम व आवलोसे अधिक) ध ३/१,२.६/६७/६ तत्थ एगमावलियं घेत्तूण असंखेज्जेहि ममयेहि एगावलिया होदि त्ति असखेज्जा समया कायव्या। तत्थ एगसमए । अवणिदे सेसकालपमाण भिण्णमुत्तो उच्चदि । पुणो वि अवरेगे समए अवणिदे सेसकालपमाणमंतोमुहुत्त होदि । एव पुणो पुणो समया अवणेयम्बा जाब उस्सासो णिविदो त्ति। तो वि सेसकालपमाणमतोमुहूत्तं चैव होइ। एक सेसुस्सासे वि अवयवा जावेगावलिया सेसा त्ति । सा आवलिया वि अतोमुत्तमिदि भण्णदि I = एक आवलीको ग्रहण करके असख्यात समयोसे एक आवली होती है, इसलिए उस आवलीके असंख्यात समय कर लेने चाहिए। यहाँ मुहूर्त में से एक समय निकाल लेने पर शेष कालके प्रमाणको भिन्न मुहूर्त कहते है। उस भिन्न मुहूर्त में से एक समय और निकाल लेनेपर शेष कालका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त होता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक-एक समय कम करते हुए उच्छवासके उत्पन्न होने तक एक-एक समय निकालते जाना चाहिए। वह सब एक-एक समय कम किया हुआ काल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है। इसी प्रकार जबतक आवली उत्पन्न नहीं होती तबतक शेष रहे एक उच्छ्वासमें-मे भी एक-एक समय कम करते जाना चाहिए, ऐसा करते हुए जो आवली उत्पन्न होती है उसे भी अन्तर्मुहूर्त कहते है। (चा, पा टी. १७/४/५)। २ महूर्त के समीप या लगभग ध. ३/१,२,६/६६५ उसमसम्माइट्ठीणमवहारकालो पुण असंखेजाबलि मेत्तो, खडयसम्माइट्ठी हितो तेसिं असंखेजगुणहीणतण्णहाणुवबत्तीदो। सासणसम्माट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठीणं पि अवहारकालोअसंखेज्जावलियमैत्तो. उबसमसम्माइट्ठीहितो तेसिमसंखेज गुणहीणतण्णहाणुववत्तीदो। 'एदेहि पलिदोवममबहिरदि अंतोमुहुत्तेण कालेण' इति सुत्तेण सह विरोहो वि ण होदि । सामीप्याथै वर्तमानान्त शब्दग्रहणात् । मुहर्तस्यान्त अन्तर्महूर्त' । उपशम सम्यग्दृष्टि जीवौंका अवहार काल तो असंख्यात आवली प्रमाण है, अन्यथा उपशम सम्यग्दृष्टि जीव क्षायिक सम्यग्दृष्टियोसे असख्यातगुणे हीन बन नहीं सकते है । उसी प्रकार सासादन सभ्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोका भी अवहारकाल असंख्यात आवली प्रमाण है. अन्यथा उपशम सम्यग्दृष्टियोसे उक्त दोनो गुणस्थान बाले जीव असंख्यातगुणा हीन बन नहीं सकते है । 'इन गुणस्थानों में से प्रत्येक गुणस्थानकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त प्रमाणकाल गल्योपम अपहृत होता है। इस पूर्वोक्त सत्र के साथ उक्त कथन का विरोध भी नही आता है, क्योकि अन्तर्मुहूर्त में जो अन्तर शब्द आया है उसका सामीप्य अर्थ में ग्रहण किया गया है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जो मुहूर्त के समीप हो उसे अन्तर्मुहूर्त कहते है। इस अन्तर्मुहूर्त का अभिप्राय मुहूर्त से अधिक भी हो सकता है। अंतविचारिणी-एक ओषधि विद्या। दे. 'विद्या'। अंतस्थिति देखो स्थिति। अंध-पाँचवे नरकका चौथा परल । दे. नरक १/११ । अंधश्रद्धान-दे श्रद्धान २। अंध्रकरूढि-वानरवशीय राजा प्रतिचन्द्रकापुत्र । दे,इतिहास १०/१३ अंध्रकष्णि -(ह. पु. १८ श्लोक) पूर्वभव नं ५-ब्राह्मणपुत्र रुद्रदत्त (१७-१०२), पूर्वभव नं.४-सातवे नरकका नारकी (१०९), पूर्वभव न ३-गौतम ब्राह्मणका पुत्र (१०२-१८), पूर्वभव नं.२-स्वर्ग में देव (१०६), वर्तमान भव-शौरपुरके राजा शूरका पुत्र (१०), समुद्रविजयादि १० पुत्र तथा कुन्ती-मदी दो पुत्रियोका पिता एवं भगवान नेमिनाथका बाबा था ( १२-१३), अन्तमें पुत्रोको राज्य दे दीक्षा धारण कर ली। (१७७-१७८) अंध्रनगरी-(म. पु प्र१०/पन्नालाल) हैदराबाद प्रान्तमें वर्तमान वेगीनगर। अंबर-प प्र. टी. २/१६३/२७५ अम्बरशब्देन शुद्राकाशं न ग्राह्य' किन्तु विषयकपायविकल्पशून्यपरमसमाधिग्राह्य । -अम्बर शब्द आकाशका वाचक नही समझना, किन्तु समस्त विषय कषायरूप विकल्प जालोसे शून्य परम ममाधि लेना। अंबरतिलक-बिजयार्धकी उत्तर श्रेणीका एक नगर ।-दे विद्याधर। अंबरीष-असुरकुमार भवनवामी देवोका एक भेद ।-दे असुर । अंब -भरतक्षेत्र आर्य खण्डकी एक नदी।-दे. मनुष्य ४ । अंश-प.ध.पू ६० अपि चाश पर्यायो भागो हारो विधा प्रकारश्च । भेदश्छेदो भङ्ग ठाब्दाश्चैकार्थवाचका एते॥६॥-अश, पर्याय, भाग, हार, विधा, प्रकार तथा भेद, छेद और भग ये सब शब्द एक ही अर्थ के वाचक है। अर्थात इनका दूसरा अर्थ नही है। पधपू २७६ तत्र निर शो विधिरिति स यथा स्वय सदेवेति । तदिह विभज्य विभाग प्रतिपेधश्वाशकस्पन तस्य । २७६ ॥ उन विधि और प्रतिपेध में अठा कल्पनाका न होना विधि यह है तथा वह विधि इस प्रकार है कि जेसे स्वय सब सतही है और यहॉपर विभागोके द्वारा उस सत का विभाग करके उमके अशों की कल्पना प्रतिषेध है। * निरंश द्रव्यमें अंशकल्पना--दे. 'द्रव्य' । *उत्पादादि तीनो वस्तके अंश है।--दे उत्पादव्ययधौव्य । * गुणोमें अंशकल्पना--दे गुण २। * गणित सम्बन्धी अर्थ-x/y में x अश कहलाता है - दे-गणित II/१/१०। अकंपन-(म.पु सग/श्लोक) काशी देशका राजा (४३/१२७ ) स्वय वर मार्गका सचानक था तथा भरत चक्रवर्तीका गृहपति था (४५१-५४ ) भरतके पुत्र अर्क कीर्ति तथा सेनापति जयकुमारमें सुलोचना नामक कन्याके निमित्त सघर्ष होनेपर (४५/३४४-३४५) अपनी बुद्धिमत्तासे अक्षमाला नामक कन्या अर्ककीर्ति के लिए दे सहज निपटारा किया {४५/१०-३०) अन्तमें दीक्षा धार अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त किया।(४५/८७,२०४-२०६) अकपनाचार्य-(ह पु २०/श्लोक ) मुनिसंघके नायक थे (५) हस्तिनापुर में ससंघ इनपर बलि आदि चार मन्त्रियोंने घोर उगसर्ग किया ( ३३-३४) जिसका निवारण विष्णुकुमार मुनिने किया (६२) । अकबर-१. (स. सा./ कलश टी /प्र.क्र. शीतल )-दिल्लीका सम्राट् । समय-वि. १६०३-१६६२ ( ई.१५५६-१६०५) २. हि जै.सा. इ६७ कामता-दिल्लीका सम्राट् । समय ई श,१६ । अकर्तृत्वनय-दे. नय I/५। अकर्तत्व शक्ति-म. सा./आ./परि/शक्ति नं. २१ सकलकर्मकृतज्ञातृत्वमात्रा तरिक्तपरिणामकरणोपरमारिमका अकतृ स्वशक्ति ।सब कर्मों से किये गये ज्ञातापनेमात्रसे भिन्न परिणाम उनके करनेका अभावस्वरूप इक्कीसवीं अकर्तृत्व शक्ति है। अकलंक विद्य देव-(घ २/प्र. ४/H. L. Jain नन्दिसंघके देशिय गणकी गुर्वावलीके अनुसार यह गण्डविमुक्तदेवके शिष्य थे। विद्यदेव आपकी उपाधि थी। समय-वि. १२२५-१२३६ (ई, १९५८-१९८२) आता है। विशेष-दे० इतिहास ७/५ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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