Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 435
________________ उपचार २ कारण कार्य आदि उपचार निर्देश का आरोप है। ७ स्वजाति विभाव पर्यायमे स्वजाति द्रव्यका आरोप इस प्रकार है। जैसे - स्थूल स्कन्धको ही पुद्गल द्रव्य कह देना । यहाँ स्कन्धरूप पुद्गल की विभाव पर्यायमें पुद्गल द्रव्यका उपचार किया गया है। ८. स्वजाति पर्यायमें स्वजाति गुणका आरोप इस प्रकार है। जैसे-देहके वर्ण विशेषको देखकर यह उत्तम रूपवाला है' ऐसा कहना । महाँ देह पुद्गल पर्याय है । उसमें पुद्गलके रूपगुण का आरोप किया गया है। २. उपचरित असदभत व्यवहारके भेदोकी अपेक्षा १. सत्यार्थ उपचरित असद्भुत व्यवहार इस प्रकार है। जैसेकिसी देशके राजाको देशपति कहना। क्योंकि व्यवहारसे वह उस देशका स्वामी है ।२४१। २. असत्यार्थ उपचरित असद्भुत व्यवहार इस प्रकार है। जैसे-किसी नगर या देशमें रहनेके कारण 'यह मेरा नगर है' ऐसा कहना। क्योकि व्यवहारसे भी वह उस नगरका स्वामी नहीं है ।२४१३ ३ सत्यासत्यार्थ उपचारित असद्भुत व्यवहार इस प्रकार है जैसे---'मेरा द्रव्य' ऐसा कहना। क्योंकि व्यवहारसे भी कुछ मात्र द्रव्य उसका है सर्व नही ।२४१। स्वजाति उपचरित असदभूत व्यवहार इस प्रकार है। जैसे- 'पुत्र बन्धुवर्गादि मेरी सम्पदा है' ऐसा कहना। क्योकि यहाँ चेतनका चेतन पदार्थों में ही स्वामित्व कहा गया है । ५. विजाति उपचरित असद्भूत व्यवहार इस प्रकार है । जेसे - 'आभरण हेम रत्नादि मेरे है' ऐसा कहना, क्योंकि यहाँ चेतनका अचेतनमे स्वामित्व सम्बन्ध कहा गया है। ६ स्वजाति विजाति उपचरित असदभूत व्यवहार इस प्रकार है। जैसे---'देश, राज्य, दुर्गादि मेरे है ऐसा कहना, क्योकि यह सर्व पदार्थ चेतन व अचेतनके समुदाय रूप है। इनमें चेतनका स्वामित्व बतलाया गया है। नोट-इसी प्रकार अन्य भी उपचार यथा सम्भव जानना (न च /श्रुत २२); (आ.प.)। २.कारण कार्य आदि उपाचर निर्देश १. कारणों में कार्यके उपचारके उदाहरण स. सि./१०/३४८/११ हिंसादयो दुखमेवेति भावयितव्यम् । कथ हिसादयो दुखम् । दुखकारणत्वात् । यथा 'अन्न वै प्राणा' इति। कारणस्य कारणत्वाद वा यथा धनं प्राणाः इति । धनकारणमन्नपानमन्नपामकारणा. प्राणा इति। तथा हिंसादयोsसद्वद्यकारणम् । असद द्यकम च दुखकारणमिति । दुखकारणे दुखकारणकारणे वा दुःखोपचार ।-हिंसादिक दु.ख ही है ऐसा चिन्तन करना चाहिए। प्रश्न-हिंसादिक दुख कैसे है ? उत्तर-दुखके कारण होनेसे। यथा-'अन्न ही प्राण है। अन्न प्राणधारणका कारण है पर कारणमें कायंका उपचार करके अन्नको हो प्राण कहते है। या कारणका कारण होने से हिसादिक दुख है । यथा 'धन ही प्राण है'। यहाँ अन्नपानका कारण धन है और प्राणका कारण अन्नपान है, इसलिए जिस प्रकार धनको प्राण कहते है उसी प्रकार हिसादिक असाता वेदनीयकर्म के कारण है और असाता वेदनीय दुखका कारण है, इसलिए दुखके कारण या दुखके कारणके कारण हिसादिकमें दुखका उपचार है। (रा. वा ७/१०/१/५३७/२४) श्लो. पा, २/१/६/४६/४६४/२३ घृतमायुरन्नं वै प्राणा इति, कारणे कार्योपचार । -निश्चयकर घृत ही आयु है । अन्न ही प्राण है। इन वाक्यो में कारणमें कार्यका उपचार किया गया है। क.प.१/१,१३-१४/१२४४/२८८/५ (कारण रूप द्रव्यकम में कार्यरूप क्रोधभावका उपचार कर लेनेसे द्रव्य कर्ममें क्रोध भावकी सिद्धि हो जाती है। घ.१/४,१,४/१३/८ (भावेन्द्रियोके कारण कार्यभूत द्रव्येन्द्रियोको भी इन्द्रिय संज्ञाकी प्राप्ति) ध १/१,१,६०/२६८/२(कारणमे कार्यका उपचार करके ऋद्धिके कारणभूत सयमकोही ऋद्धि कहना)। ध ६/११, १,२८/५१/३ (कारणमें कार्यके उपचारसे ही जाति नामकर्म को 'जाति' सज्ञा की प्राप्ति ।) ध१/४,१,४५/१६२/३ (कारणमें कार्य का उपचार करके शब्द या उसकी स्थापनाको भी 'भूत' स ज्ञाकी प्राप्ति।) घ.१/४,१,६७/३२३/६ (कारणमें कार्यका उपचार करके क्षेत्रादिकोंको भी 'भार ग्रन्थ' संज्ञाकी प्राप्ति।) प्र सा /त.प्र.३४ (कारणमें कार्यका उपचार करके ही द्रव्य श्रुतको 'ज्ञान' सज्ञाकी प्राप्ति।) २. कार्यमें कारणके उपचारके उदाहरण स.सि. १/१२/१२२/८ श्रुतमपि क्वचिन्मतिरित्युषचर्यते मतिपूर्वकत्वादिति ।-श्रुतज्ञान भी कही पर मतिज्ञानरूपसे उपचारित किया जाता है क्योकि श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है । (अर्थात श्रुतज्ञान कार्य है और मतिज्ञान उसका कारण )। रा. वा. २/१८/३/१३१/१ कार्य हि लोके कारण मनुवर्तमान दृष्ट यथा घटकारपरिणत विज्ञान घट इति, तथेन्द्रियनिमित्त उपयोगोऽपि इन्द्रियमिति व्यपदिश्यते । -लोकमे कारण की भी कार्य में अनुवृत्ति देखो जाती है जैसे घटाकारपरिणत ज्ञानको घट कह देते है। उसी प्रकार उपयोगको भी इन्द्रियके निमित्तसे इन्द्रिय कह देते है। ध १/१,१,२४/२०२/६ (कार्यमे कारणका उपचार करके मनुष्य गति नामकर्म के कारणसे उत्पन्न मनुष्य पर्यायके समूहको मनुष्य गति कहा जाता है।) ध४/१,५,१/३१६/६ (कार्य मे कारणका उपचार करके पुद्गलादि द्रव्यो. के परिणमनको भो 'काल' सज्ञाकी प्राप्ति।) प्रसा./त.प्र ३० ( कार्य मे कारणके उपचारसे ज्ञानको ज्ञेयगत कहा जाता है।) ३. अल्पमें पूर्ण के उपचारके उदाहरण स सि ७/२१/३६१/१ उपचाराद् राजकुले सर्वगतचैत्राभिधानवत् । -जैसे राजकुल में चैत्रको सर्वगत उपचारसे कहा जाता है इसी प्रकार सामायिक व्रतके महाव्रतपना उपचारसे जानना चाहिए। ४. भावीमें भूतके उपचारके उदाहरण ध११,१६/१८२/४ कर्मणा क्षयोपशमाभ्यामभावे कथं तयोस्तत्र सत्त्वमिति चेन्नेष दोष,, तयोस्तत्र सत्त्वस्योपचारनिबन्धनत्वात् । प्रश्न- कर्मोके क्षय और उपशमके अभावमें भो ८वे गुणस्थानमें क्षायिक या औपशमिक भाव कैसे हो सकता है । उत्तर-यह कोई दोष नही, क्योकि, इस गुणस्थानमें क्षयिक और औपशमिक भावका सद्भाव उपचारसे माना गया है। विशेष दे. अपूर्वकरण ४ ५. आधारका आधेयमें उपचार श्लो, वा २/१/६/५६/४६४/२४ मञ्चा क्रोशन्ति इतितास्थ्यात्तच्छन्दोपचार. =मचान पर बैठकर किसान चिल्लाते है, पर कहा जाता है कि मचान चिल्लाते है । यहाँ आधारका आधेयमें आरोप है। ६. तद्वानमें ततका उपचार श्लो, बा २/१/६/४६४/२४ साहचर्याद्यष्टिः पुरुष इति। -लाठीवाले पुरुषको लाठिया या गाडीवाले पुरुषको गाडी कहना तद्वानमें ततका उपचार है। ७ समीपस्थमें ततका उपचार श्लो वा २/१/६/५६/४६४/२५ सामीप्याद्वक्षा ग्राम इति ।- किसी पथिकके पूछने पर यह कह दिया जाता है कि ये सामने दीखनेवाले वृक्ष ही ग्राम है अर्थात अत्यन्त समीप है। यहाँ समीपमें तद्का उपचार है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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