Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 433
________________ उपचरित नय ४१८ १. उपचारके भेद व लक्षण उत्तर-महाश ग (बारहसिगाके समान बडे सोग), लम्बे स्तन, विशाल तोंदवाला पेट आदि जीवको पीडा करनेवाले अवयव है। यदि उपधात-नामकर्म न हो तो बात, पित्त और कफसे दूषित शरीरसे जीवके पीडा नहीं होनी चाहिए। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि वैसा पाया नही जाता। (ध १३/५.५,१०१/३६४/११), (गो क जो प्र. ३३/२६/१८)। * उपघात नामकर्म व असाता वेदनीयमे परस्पर सम्बन्ध -दे, वेदनीय २ * उपघात प्रकृतिकी बन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणाएँ -दे, वह वह नाम उपचरित नय-दे नय V५1 * उपचरित नयके विशेष भेद-दे. उपचार १ उपचरित स्वभाव-दे स्वभाव १ उपचार--अन्य वस्तुके धर्मको प्रयोजनवश अन्य बस्तु में आरोपित करना उपचार कहलाता है जैसे मूर्त पदार्थोंसे उत्पन्न ज्ञानको मूर्त कहना अथवा मुख्यके अभावमें किसी पदार्थ के स्थानपर अन्यका आरोप करना उपचार कहलाता है जैसे संश्लेष सम्बन्धके कारण शरीरको ही जीव कहना। अथवा निमित्तके वशसे किसी अन्य पदार्थको अन्यका कहना उपचार है-जैसे घीका घडा कहना। और इस प्रकार यह उपवार एक द्रव्यका अन्य द्रव्यमें, एक गुणका अन्य गुण में, एक पर्यायका अन्य पर्यायमें, स्वजाति द्रव्यगुण पर्यायका विजाति द्रव्यगुण पर्यायमें, सत्यासत्य पदार्थोंके साथ सम्बन्ध रूपमें, कारणका कार्य में, कार्यका कारण में इत्यादि अनेक प्रकारसे करने में जाता है। यद्यपि यथार्थ दृष्टिसे देखनेपर यह मिथ्या है, परन्तु अपेक्षा या प्रयोजनकी दृष्टिमें रखकर समझे तो कथचित सम्यक है । इसीसे उपचारको भी एक नय स्वीकार किया गया है। व्यवहार नयको ही उपचार कहा जाता है। व्यवहारनय सहभूत और असदभूत रूपसे दो प्रकार है तथा इसी प्रकार उपचार भी दो प्रकारका हे । अभेद वस्तुमें गुण गुणी आदिका भेद करना भेदोपचार या सभृत-व्यवहार है । तथा भिन्न वस्तुओमें प्रयोजन वश एकता का व्यबहार अदोभेचार या असद्भत व्यवहार है । सो भी दो प्रकार का है-अनुपचरित असदभूत और उपचरित-असद्भुत । तहाँ संश्लेष सम्बन्ध-युक्त पदार्थों में एकताका उपचार अनुपचरित असदभूत-व्यवहार है और भिन्न प्रदेशी द्रव्योमें एकताका उपचार उपचरितअसदभूत-व्यवहार है । दोनों ही प्रकारके व्यवहार स्वजाति पदार्थोंमें अथवा विभाजित पदार्थों में अथवा उभयरूप पदार्थों में होने के कारण तीन-तीन प्रकारका हो जाता है । इस प्रकार गुणाकार करनेसे इसके अनेको भंग बन जाते है, जिनका प्रयोग लौकिक क्षेत्र में अथवा आगममें नित्य स्थल-स्थल पर किया जाता है। ४ भावीमे भूतके उपचारके उदाहरण ५ आधारमे आधेयके उपचारके उदाहरण ६ तद्वानमे तत्के उपचारके उदाहरण ७ अन्य अनेको प्रकार उपचारके उदाहरण ३ द्रव्यगुण पर्यायमे उपचार निर्देश १ द्रव्यको गुणरूपसे लक्षित करना २ पर्यायको द्रव्यरूपसे लक्षित करना ३ द्रव्यको पर्यायरूपसे लक्षित करना ४ पर्यायको गुणरूपसे लक्षित करना ४ उपचारको सत्यार्थता व असत्यार्थता १ परमार्थतः उपचार सत्य नही है २ अन्य धर्मोका लोप करनेवाला उपचार मिथ्या है ३ उपचार सर्वथा अप्रमाण नहीं है ४ निश्चित व मुख्य के अस्तित्वमे ही उपचार होता है सर्वथा अभावमे नहीं ५ मख्यके अभावमे भी अविनाभावी सम्बन्धोमे ही परस्पर उपचार होता है ६ उपचार प्रयोगका कारण व प्रयोजन १ उपचार कोई पृथक्नय नहीं २ असद्भूत व्यवहार नय ही उपचार है * व्यवहार नयके भेदादि निर्देश-दे नय v उपचार शद्ध नयमे नही नंगमादि नयोमे ही संभव है - १ उपचार के भेद वलक्षण १ उपचार सामान्यका लक्षण २ उपचारके भेद प्रभेद ३ उपचारके भेदोंके लक्षण १. असदभूत व्यवहारके भेदोंकी अपेक्षा २. उपचरित असद्भूत-व्यवहारके भेदोंकी अपेक्षा २ कारण कार्य आदि उपचार निर्देश १ कारणमे कार्यके उपचारके उदाहरण २ कार्यमे कारणके उपचारके उदाहरण ३ अल्पमें पूर्णके उपचारके उदाहरण १. उपचारके भेद व लक्षण १. उपचार सामान्यका लक्षण आ.५६ अन्यत्र प्रसिदस्य धर्मस्यान्यत्र समारोपणमसहस्तव्यवहार। असद्भूतव्यवहार एवोपचार'। उपचारादप्युपचार य करोति स उपचरितासभूतव्यवहार'। मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते चोपचार. प्रवर्तते। सोऽपि सबन्धा विनाभाव । - अन्यत्र प्रसिद्ध धर्मका अन्यमें समारोप करके कहना सो असद्भूत-व्यहारनय है। असदभूत व्यवहारको ही उपचार कहते है। (जसे गुण गुणोमे भेद करके जीवको ज्ञानवान कहना अथवा मर्त पदार्थों से उत्पन्न ज्ञानको भी मूत कहना।) इस उपचार का भी जो उपचार करता है सो उपचरित असद्भूत व्यवहार है (जैसे शरीरको या धन आदिको जीव कहना अथवा अन्नको प्राण कहना इत्यादि)।(न. च./श्रुत. २२,२६)। यह उपचार मुख्यपदार्थ के अभाव में, प्रयोजनमें और निमित्तमें प्रवर्तता है, और वह भी अविनाभावी सम्बन्धों में ही किया जाता है। सू.पा/पं.जयचन्द ६/५४ प्रयोजन साधनेकू काहूं वस्तु कं घट कहना सो तो प्रयोजनाश्रित व्यवहार है (जैसे जल में भीगे हुए वस्त्रको हो जल धारणके कारण घट कह देना)। बहुरि काहू अन्य वस्तुकै निमिततै घटमें अवस्था भई ताकू घटरूप कहना सो निमित्ताश्रित व्यवहार है (जैसे घीका घडा व हना अथवा अग्निसे पकनेपर घड़ेको पका हुआ कहना )। जतेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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